यहाँ हमने Class 11 Biology Chapter 18 Notes in Hindi दिये है। Class 11 Biology Chapter 18 Notes in Hindi आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।
Class 11 Biology Chapter 18 Notes in Hindi देह तरल एवं परिसंचरण
रुधिर की संरचना:- रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है जिसमें द्रव्य आधात्री, प्लाज्मा तथा अन्य संगठित पदार्थ होते हैं।
प्लाज्मा
यह हल्के पीले रंग का गाठा तरल पदार्थ है जिसमें 90-92% जल, 6-8% प्रोटीन व 0.9 – 1.0% अकार्बनिक लवण आयन आदि पदार्थ होते हैं। यह रुधिर के आयन का लगभग 50-60% होता है।
प्लाज्मा के कार्बनिक अवयव
1. प्लाज्मा प्रोटीन्स
इनकी 7-8% मात्रा प्लाज्मा में होती है। इनका निर्माण यकृत कोशिकाओं में होता है। इनमे एल्म्यूमिन, ग्लोब्यूलिन्स, फाइब्रिनोजन व प्रोथोम्बिन प्रमुख हैं।
2. पचे हुए पोषक पदार्थ
भोज्य पदार्थ के रूप में प्लाज्मा में ग्लूकोज, वसा, वसा अम्ल, ग्लिसरॉल, अमीनो अग्ल, विटामिन आदि मिलते हैं जो रुधिर से शरीर की कोशिकाओं द्वारा लिया जाता है।
3. प्रतिस्कन्द
हिपेरिन नामक प्रतिस्कंद अल्प मात्रा में प्लाज्मा में पाया जाता है।
4. हार्मोन्स एवं उत्सर्जी पदार्थ
हार्मोन्स रुधिर द्वारा पूरे शरीर में जाते हैं। यूरिया, अमोनिया, यूरिक अम्ल आदि उत्सर्जी पदार्थ भी रुधिर द्वारा उत्सर्जी अंगो तक पहुंचते हैं।
प्लाज्मा के अकार्बनिक लवण
ये आयन के रूप में पाए जाते हैं। इनमें प्रमुख है सोडियम क्लोराइड, सोडियम बाइकार्बोनेट, लौह, जिंक, कैल्शियम, मैग्नीशियम, आदि है। ये रुधिर का PH व परासरण दाब बनाए रखते हैं।
संगठित पदार्थ
लाल रुधिर कणिका(RBC) श्वेताणु तथा प्लेटलेट्स को सम्मिलित रूप से संगठित पदार्थ कहते हैं।
1. लाल रुधिर कणिकाएँ :
एक सामान्य वयस्क मनुष्य के प्रति घन mm रुधिर में लगभग 50 लाख RBC होती है। इनका निर्माण भ्रूण में यकृत एवं प्लीहा में होता है। लेकिन जन्म होने के बाद इनका निर्माण लाल अस्थि मज्जा कोशिकाओं से होता है।
एरिथ्रोपोइसिस
RBC के निर्माण को एरिथ्रोपोइसिस कहते हैं जिसके लिए फोलिक अम्ल व विटामिन B12 की आवश्यकता होती है।
RBCS का लगभग 90% शुष्क भार हीमोग्लोबिन का होता है। हीमोग्लोबिन O2 का सवंहन करने के अतिरिक्त कुछ मात्रा में C02 का भी संवहन करता है।
RBS का आवश्यकता से अधिक संचय प्लीहा में किया जाता है। मनुष्य में RBCs का जीवनकाल 120 दिन से 125 दिन का होता है।
2. श्वेताणु (ल्यूकोसाइट्स)
हीमोग्लोबिन के अभाव के कारण श्वेताणु के रंगहीन होने से इन्हें श्वेत रुधिर कणिकाएँ भी कहते हैं। इनमें केन्द्रक एवं कोशिकांग पाए जाते हैं।
- ये गोलाकार या अनियमित आकार की होती हैं।
- ये रोगाणुओं का भक्षण करके उन्हें नष्ट कर देती हैं।
- इनका निर्माण थायमस ग्रन्थि, लसिका गाठों, प्लीहा एवं लाल अस्थि मज्जा में होता है।
ल्यूकोसाइट के प्रकार
ये दो प्रकार के होते हैं
- कणिकामय ल्यूकोसाइट
- कणिकाविहीन ल्यूकोसाइट
1. कणिकामय ल्यूकोसाइट:-
इनका केन्द्रक अनियमित आकार का होता है तथा जीवद्रव्य कणिकायुक्त होता है। ये निम्न प्रकार के होते हैं:-
- (a) इओसिनोफिल्स:- इनके जीवद्रव्य में बड़े आकार की कणिकाएँ होती है। प्रतिघन मिमी रुधिर में इनकी संख्या 300 से 400 तक होती है।
- (b) बेसोफिल्स:- इनके जीवद्रव्य में मास्ट कोशिकाएं पायी जाती है। प्रतिघन मिमी रुधिर में इनकी संख्या 30 से 200 तक होती है।
- (c) न्यूट्रोफिल्स:- प्रतिघन मिमी रुधिर में इनकी संख्या 4000 से 5000 तक होती है। इन्हें हेटेरोफिल्स भी कहते हैं।
2. कणिकाविहीन ल्यूकोसाइट्स:-
इन्हें श्वेत रुधिराणु कहते है। इनके जविद्वत्य में कणिकाएँ नहीं होती। ये दो प्रकार की होती है-
- a. लिम्फोसाइट:- इनका आकार छोटा होता है। प्रति घन मिमी रुधिर में इनकी संख्या 1500 से 2500 तक होती है। ये विष पदार्थों व रोगाणुओं को नष्ट करती हैं।
- b. मोनोसाइट्स:- प्रतिधन मिमी रुधिर में इनकी संख्या 200 से 000 तक होती है। ये भक्षण क्रिया द्वारा जीवाणुओं का भक्षण करके शरीर की सुरक्षा करती हैं।
3. पटटिकाणु या थ्रोम्बोसाइट्स:- ये सकुंचनशील, प्लेट के समान केन्द्रकविहीन रुधिराणु है। प्रति घन मिमी रुधिर में इनकी संख्या 1.5 से 35 लाख होती है। यह केवल स्तनधारियों के रुधिर में पायी जाती है।
रुधिर के कार्य
रुधिर विभिन्न प्रकार के पदार्थों का संवहन करता है। इनके निम्न कार्य है
1. ऑक्सिजन तथा कार्बन डाई ऑकैसाइड का संवहन
रुधिर से O2 फेफड़ों से ऊतक तक और CO2 से फेफड़ो तक पहुंचायी जाती है। यह क्रिया RBC मे उपस्थित हीमोग्लोबिन करता है।
2. ताप नियन्त्रण
ऊष्मा का नियत स्थानों पर वितरण करके परिसंचरण तंत्र ताप को स्थिर रखता है।
3. जल तथा PH का संतुलन
रुधिर में जल का स्तर स्थिर रहता है।
4. खाद्य पदार्थों का संवहन
रुधिर के द्वारा ग्लूकोज, अमीनो अम्ल, वसा, प्रोटीन, खनिज व जल का परिसंचरण होता है।
5 .रक्षात्मक कवच
संक्रमण के समय रुधिर तंत्र से मिलने वाले WBC तथा अन्य धरक एन्टीबॉडी बनाते हैं जो बाहरी तत्वों या एण्टीजन से शरीर की रक्षा करती है।
Chapter 1: जीव जगत
Chapter 7: नियंत्रण और समन्वय
Chapter 8: कोशिका: जीवन की ईकाई
Chapter 9: जैव अणु
Chapter 10: कोशिका चक्र और कोशिका विभाजन
Chapter 11: पौधों में परिवहन
Chapter 12: खनिज पोषण
Chapter 13: उच्च पादपों में प्रकाश संश्लेषण
Chapter 15: पादप वृद्धि एवं परिवर्धन
Chapter 16: पाचन एवं अवशोषण
Chapter 17: श्वसन और गैसों का विनिमय
Chapter 19: उत्सर्जी पदार्थ एवं निष्कासन
रुधिर वर्ग
कार्ल लैण्डस्टीनर ने सन् 1900 में बताया कि सभी मनुष्यों में समान रुधिर नहीं होता। RBC में अभिश्लेष्णिक पदार्थ होते हैं। जो प्रोटीन के बने होते है। इन्हें प्रतिजन कहते हैं
अभिश्लेषण या समूहन
RBC की कला पर दो प्रकार के प्रतिजन होते हैं। प्रतिजन A व प्रतिजन B रुधिर प्लाज्मा में इनका विरोध करने के लिए प्रतिरक्षी होते है। इन्हें anti A व anti B से दर्शाते हैं। सदैव एण्टीजन A रुधिर वाले व्यक्ति के प्लाज्मा में प्रतिरक्षी b तथा एण्टी B रुधिर वाले व्यक्ति के प्लाज्मा में प्रतिरक्षी a पाया जाता है। एण्टीजन A एण्टीबॉडी a की उपस्थिति में और एण्टीजन B एण्टीबॉडी b को उपस्थिति में अधिक चिपचिपे हो जाते हैं जिससे लाल रुधिराराणु आपस में चिपककर गुच्छा बनाने लगाते है। इसी को रुधिर का अभिश्लेषण कहते हैं।
जिन व्यक्तियों के रुधिराणु की कला पर एण्टीजन A व B दोनों होते हैं उनके रुधिर प्लाज्मा मे कोई एण्टीबाडी नहीं होती। लेकिन जिनके RBC की कला पर कोई एण्टीजन नहीं होता उनके रुधिर प्लाज्मा मे एण्टीबाडी A व B दोनों पायी जाती है।
रुधिर वर्ग के प्रकार :
लैण्डस्टीनर के अनुसार रुधिर वर्ग 4 होते हैं A, B, AB, व O। इन पर पाए जाने वाले प्रतिजन व प्रतिरक्षी निम्न है-
- रुधिर वर्ग A में प्रतिजन A व प्रतिरक्षी b पाया जाता है।
- रुधिर वर्ग B में प्रतिजन B व प्रतिरक्षी a पाया जाता है।
- रुधिर वर्ग AB मे A व B प्रतिजन लेकिन कोई प्रतिरक्षी नही पाया जाता है।
- रुधिर वर्ग O में कोई प्रतिजन नहीं होता लेकिन प्रतिरक्षी a व b दोनों पाए पाए जाते हैं।
रुधिर वर्गो का परीक्षण:
जिस व्यक्ति के रुधिर का परीक्षण करना है उसके एक हाथ की एक अगुली में स्टेरिलाइज्ड सुई से छेदकर रुधिर की एक-एक बूंद स्वच्छ स्लाइड पर दो जगहों पर लेते है। जिसकी पहली बूंद में एण्टी A सीरम वं दूसरी मे एण्टी B सीरम मिलाते हैं। कुछ समय बाद इनका निरीक्षण
करते हैं। यदि दोनों बूंदों का रुधिर फ्ट जाए तो व्यक्ति का रुधिर वर्ग AB होगा, यदि बूंद न फटे तो रुधिर वर्ग O होगा, यदि केवल पहली बूँद फटे तो रुधिर वर्ग A और यदि सिर्फ दूसरी बूंद फटती हैं तो रुधिर वर्ग B होगा।
रुधिर आधान
यह हमेशा समान वर्गो के बीच बेहतर होता है लेकिन आवश्यकता के अनुसार कुछ अलग-अलग वर्गों के बीच भी रुधिर आधान किया जा सकता है।
- रुधिर आधान के समय दाता एण्टीजन व ग्राही के एणटीबाड़ी पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
- AB रुधिर वर्ग का मनुष्य सर्वग्राही और O रुधिर वर्ग का मनुष्य सर्वदाता है।
रुधिर बैंक
रुधिर देने वाले के रुधिर वर्गों का परीक्षण करके अस्पताल में उनके रुधिर में सोडियम साइट्रेट मिलाते है और उसे सीलबन्द बोतलों में निश्चित तापक्रम पर निश्चित अवधि तक सुरक्षित रख दिया जाता है, जिन्हें रुधिर बैंक कहते हैं।
रुधिर में उपस्थित प्रतिस्कंदन हिपैरिन के कारण रुधिर वाहिनियों में रुधिर नही जमता है इसे प्रोथ्रोम्बिन भी कहते हैं।
लसीका
यह रुधिर से दना हुआ रंगहीन द्वत्य है जिसमें WBC मिलते हैं जो शरीर को प्रतिरक्षा अनुक्रिया के लिए उत्तरदायी हैं।
यह पोषक पदार्थ हार्मोन आदि के संवहन के लिए महत्वपूर्ण है।
लासिका तंत्र में उपस्थित द्वत्य को लसिका कहते हैं।
प्लीहा
यह लासिका ग्रंथि है जो उदर में अमाशय के फंडिक भाग व डायाफ्राम के बीच में पेरीटोनियम के दो वलनो से सधी होती है।
यह लसीका के कंडिक भाग व
प्लीहा के कार्य
- लिम्फोसाइटस का निर्माण
- एण्टीबाडीज का विश्लेषण करना
- रुधिर की अतिरिक्त मात्रा का संग्रह करना
- टूटी फूटी RBC तथा प्लेटलेट्स को नष्ट करना
परिसंचरण पथ
यह हो तरह का होता है:-
1. खुला परिसंचरण पथ
इसमें रुधिर को हृदय दवारा रुधिर वाहिकाओ में पम्प किया जाता है जो देहगुहा में खुलती है जैसे- आर्थोपोडा व मोलास्का में।
2. बन्द परिसंचरण पथ
इसमें हृदय से रुधिर का प्रवाह एक- दुसरे से जुड़ी रुधिर वाहिनियों के जाल में होता है। यह अधिक लाभदायक होता है क्योंकि इसमें रुधिर के प्रवाह को आसानी से नियमित किया जाता है। जैसे- ऐनेलिडा तथा कशेरुकियों में
एकल परिसंचरण
मछलियों में हृदय विऑक्सीजनित रुधिर बाहर की ओर पम्प करता है जो क्लोम के द्वारा ऑक्सीजनित होकर शरीर के विभिन्न भागों में पहुंचाया जाता है और वहां से वीऑक्सीजनित रुधिर हृदय में वापस आता है। इस क्रिया को एकल परिसंचरण कहते हैं।
अपूर्ण दोहरा परिसंचरण
उभयचरों और सरीसृपों में बायॉ आलिन्द क्लोम या फेफडों या त्वचा से ऑक्सीजनयुक्त रुधिर प्राप्त करता है व दाहिना आलिन्द शरीर के अन्य भागों से विऑक्सीजनित रुधिर प्राप्त करता है परन्तु वे रुधिर को बाहर की ओर पम्प करते हैं। इस क्रिया को अपूर्ण दोहरा परिसंचरण कहते हैं।
दोहरा परिसंचरण
पक्षियो, मगरमच्छ व स्तनधारियों में हृदय चार कक्ष का बना होता है। दो आलिन्द व दो निलय के होते हैं। इनमें आक्सीजनित विऑक्सीजनित रुधिर क्रमश बाए व दाए आलिन्द में आता है। यहां से वह उसी क्रम में बाए व दाए निलय में जाता है। निलय रुधिर को मिलाए बिना इन्हें पम्प करता है। अतः इन प्राणियों में दोहरा परिसंचरण पाया जाता है।
मानव परिसंचरण तंत्र
रुधिर का सम्पूर्ण शरीर मे चक्कर लगाने की क्रिया रुधिर परिसंचरण कहलाती है। यह क्रिया एक पेशीय पम्प द्वारा होता है जिसे हृदय कहते हैं। रुधिर का बहाव सदैव एक ही दिशा होता है। रधिर वाहिकाएं तीन प्रकार की, धमनी, शिरा, केशिका होती हैं।
- धमनियाँ हृदय से शुद्ध रूधिर लाती है जो ऊतक तक जाता है। अशुद्ध रूधिर केशिकाओं से होता हुआ लघु शिराओ फिर शिराओं से हृदय तक जाता है।
- शिराओं में वाल्व होते हैं जो केवल बहाव की दिशा में ही खुलते है जिससे रुधिर दूसरी ओर न जा सके।
- फुफ्फुस धमनी अशुद्ध रुधिर फेफड़ों में तथा फुफ्फुस शिरा शुद्ध रूधिर हृदय में लाती है।
मनुष्य के हृदय की संरचना एवं रूधिर वाहिकाएँ
हृदय दोनों फेफड़ो के बीच वक्षगुहा के मध्यावकाश में डायाफ्राम के ठीक ऊपर स्थित होता है। यह थोड़ा सा बायी ओर झुका रहता है।
हृदयावरण
हृदय एक दोहरी झिल्ली से घिरा रहता है जिसे हृद्यावरण कहते है। इसकी आन्तरिक परत आंतरांगीय हृदयावरण तथा बाहरी परत भित्तीय हृदयावरण कहलाती है। हृदयावरण के बाहर तन्तुकीय संयोजी ऊतक से बना एक तन्तुकीय हृदयावरण होता है।
हृदय की आंतरिक संरचना
हृदय चार कक्षों का बना होता है। जिसमे दो आलिन्द व दो निलय होते है। एक अंतर अलिंदी पट दाए व बाए आलिन्द को अलग करती है। दाए आलिन्द में तीन महाशिराएँ अग्र महाशिरा, आलिन्द के ऊपरी भाग में, पश्च महाशिरा आलिन्द के निचले भाग में खुलती है। एक अन्य शिरा कोरोनरी साइनस आंतर अलिंदीय पर के निकट खुलती है। इसी तरह बाए आलिन्द में दोनों फेफड़ो से शुद्ध रुधिर लाने वाली फुफ्फुसीय शिराए खुलती हैं।
दाएं आलिन्द व दाएँ निलय के रूध्र पर तीन पेशी वलय से युक्त एक वाल्व होता है। इसे त्रिवलनी कपाट कहते है। दाए निलय के अग्र भाग के बाएं कोण से फुफ्फुसीय महाधमनी या चाप और बाए निलय के अग्र भाग के दाएं कोण से दैहिक महाधमनी व चाप निकलती है। इन दोनों चापो के निकास द्वार पर तीन-तीन जेबनुमा अर्द्धचंदाकार कपाट होते हैं। जो रुधिर को निलय से छापों में जाने देते है।
फुफ्फुसीय धमनी दाये निलय से निकलकर बायी ओर घूमकर दैहिक महाधमनी के अधरतल से होता हुआ दो यल्योनरी धमनियों मे बट जाता है। जो अपने अपने फेफड़े में निलयी रुधिर को आक्सोजिनेशन के लिए ले जाती है।
हृदय कंकाल
हृदय की भित्ति में सघन तन्तुकीय संयोजी ऊतक के वलय मिलते हैं जो हृदय के कक्षो को फैलने से रोकते हैं। ये संरचनाएँ हृदय के कंकाल का कार्य करती है।
हृदय की भित्ति
ये तीन स्तरो से बनी होती है-
- एवीकार्डियम:- यह बाह्य स्तर है।
- मीसोकार्डियम:- यह मध्य स्तर है जो मोटी पेशी से बना होता है। इसकी हृद पेशियॉ जीवन भर सिकुड़ती व फैलती है।
- एन्डोकार्डियम:- यह सबसे भीतरी कोमल स्तर है।
हृद चक्र
हृदय की पेशियों का लयबद्ध सिकुड़ना एवं शिथिल होना हृद चक्र या हृदय की धड़कन कहलाता है। जब ये शिथिल अवस्था मे होती है तो इन्हें अनुशिथिलन कहते है और जब ये सिकुड़ती है तो इसे प्रकुंचन कहते है।
हृदय आवेगे की उत्पत्ति तथा आवेग का प्रसारण
SAN शिराआलिंद पूर्व क्रियाविभव पैदा करता है। यह दोनो आलिंदो को प्रेरित कर अलिंद प्रकुंचन पैदा करती है। आलिन्द निलय पूर्व व आलिन्द निलय बण्डल दवारा निलय में क्रियाविभव का संचालन होता है। यहां से हिस के बण्डल द्वारा यह निलय वेशी-न्यास तक पहुंचता है जिसके कारण यहाँ संकुंचन होता है। इस इस समय निलय प्रकुंचन व आलिन्द विश्राम को अवस्था में आ जाते हैं। इसे आलिंद का अनुशिथिलन कहते हैं।
आलिन्द में रुधिर का दाब अधिक होने के कारण त्रिवलनी कपाट व हिवलनी कपाट खुल जाते हैं। और शिराओं से शुरु आए हुए रुधिर का प्रवाह आलिन्द से पुनः निलय में शुरू हो जाता है। निलय तथा आलिन्द एक बार फिर शिथिलावस्था में चले जाते हैं। शिराआलिन्द पूर्व (SAN) पुन: क्रियाविभव पैदा करती है और यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है।
हृदय क्षमता
हृदय स्पन्दन भ्रूणीय परिवर्धन के साथ शुरू होता है और जीवन भर चलता रहता है। विश्राम अवस्था में स्वस्थ मनुष्य में हृदय 70 – 75 बार धड़कता है। इसे हृदय दर कहते हैं। प्रत्येक धड़कन में हृदय लगभग 70ml रुधिर शरीर में पम्प करता है। इसे स्ट्रोक आपतन कहते है। यह एक मिनट में 5 लीटर रुधिर पम्प करता है। इसे हृदय क्षमता कहते हैं।
रुधिर दाब
यह वह दाब है जो बाएँ निलय के सकुंचन से मुक्त रुधिर द्वारा वाहिनियों को भित्ति पर लगाया जाता है। यह धमनियों में अधिक होता है। रुधिर दाब के ही कारण केशिकाओं द्वारा धमनियों से रुधिर शिराओं तक पहुंचता है।
रुधिर दाब को सामान्यतः पारे से मापा जाता है। रुधिर दाबमापी को स्फिग्नोमेनोमीटर कहते हैं।
उच्च रुधिर दाब
केशिकाओं या धमनियों की प्रत्यास्थता की कमी के कारण उच्च रुधिर दाब होता है।
निम्न रुधिर दाब
की कमी के कारण निस रुधिर दाव –
हृदय के आने से
धमनियों के अधिक फैलने से या हृदय के रुधिर को पम्प करने की गति मे बदलाव आने से निम्न कधिर दाब होता है।
स्पन्दन ध्वनि
हृदय स्पन्दन में दो बार ध्वनि होती है-
- प्रथम ध्वनि या लब:- यह ध्वनि वलनी कपाट के बन्द होने से होती है। इसे सिस्टोलिक ध्वनि भी कहते हैं। यह निलय प्रकुंचन की अवस्था है।
- द्वितीय ध्वनि या डप:- यह अर्द्धचन्द्राकार कपाटों के बन्द होने की ध्वनि है। यह निलय शिथिलन की ध्वनि है।
इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ (ECG)
विद्युत हद लेख प्राप्त करने के लिए इस मशीन का प्रयोग करते हैं। बीमार व्यक्ति का मानक ECG प्राप्त करने के लिए रोगी को मशीन से तीन विद्युत लीड से जोड़कर लगातार निगरानी करके प्राप्त करते हैं। इसके प्रत्येक चरमोत्कर्ष को P से T तक दर्शाया जाता है।
P तरंग को आलिन्द के उद्दीपन के रूप में प्रस्तुत करते हैं। T तग का अन्त प्रकुंचन अवस्था की समाप्ति का संकेत है।
कई तरह के व्यक्तियों को ECG संरचना व आकृति सामान्य होती है। अत: इसकी चिकित्सीय महत्वा बहुत ज्यादा है।
रुधिर वाहिनियों की संरचना एवं कार्य
रुधिर वाहिनियों के द्वारा हृदय से ऊतकों तथा ऊतकों से हृदय तक रुधिर के परिवहन को बनाए रखा जाता है।
रुधिर वाहिनियों के प्रकार
ये मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है:-
1. धमनियाॅ:- ये हृदय से रुधिर को शरीर के अंगो व ऊतकों तक पहुंचाती है।
- यहाँ पर केवल फुफ्फुस धमनी को छोड़कर ऑक्सीकृत रुधिर बहता है।
- धमनियों का रंग गुलाबी होता है, जबकि फुफ्फुस धमनी का रंग नीला होता है।
रुधिर केशिकाएँ:
- ये धमनिकाओं व शिरिकाओं के बीच केशिका जालिका बनाती है।
- ये अति महीन लगभग 0.5μ व्यास की वाहिनियां है।
2. शिराएँ
केशिका जालिका जो ऊतकों में स्थित होती है, की शिरा केशिकाएँ अभिसारित होकर शिरिकाएं बनाती है। इनके परस्पर जुड़ने से मोटी बड़ी शिराएँ बनती है।
रुधिर वाहिनियों की औतिकी
रुधिर वाहिनियों की दीवार में बाहर से भीतर की ओर निम्न तीन स्तर होते है-
- बाह्य स्तर
- मध्य स्तर
- अन्तः स्तर
रुधिर आधान में Rh कारक का महत्व
यदि किसी Rh -ve वयक्ति को Rh=ve रुधिर चढ़ाया जाता है तो ग्राही के रुधिर में Rh ऍटीबाडी बनने लगती है। रक्त पहली बार देने से कोई परेशानी नहीं होता लेकिन दोबारा यदि उसे Rh+ve का रुधिर चढ़ाया जाय तो अभिश्लेषण होते समय ग्राही व्यक्ति मृत्यु हो जाती हैं।
एरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस
यह शिशु के जन्म से सम्बन्धित रोग है। यदि पिता का रुधिर Rh+ve तथा माता का Rh -ve हो तो शिशु या भ्रूण का रुधिर Rh+ve होगा। भ्रूण से कुछ लाल रुधिराणु के माता के रुधिर में Rh- एण्टीबॉडी का संश्लेषण होने लगता है और जब यह Rh एण्टीबाडी माता के रुधिर से फिर से भ्रूण में पहुंचता है तो इसकी RBC को चिपचिपा बना दी जाती है। इससे पहले गर्भ के शिशु का जन्म तो सामान्य हो जाता है किन्तु बाद के शिशु या तो गर्भ में या जन्म के तुरुन बाद मर जाते हैं। इसे ही एरिथ्रोब्लास्टोसिस फीरेलिस कहते हैं।
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