Class 11 Biology Chapter 9 Notes in Hindi जैव अणु

यहाँ हमने Class 11 Biology Chapter 9 Notes in Hindi दिये है। Class 11 Biology Chapter 9 Notes in Hindi आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।

Class 11 Biology Chapter 9 Notes in Hindi जैव अणु

 जैविक अणु

सजीव कोशिका का रासायनिक संगठन विभिन्न अणुओं से मिलकर बनता है। ये मुख्यत: कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन व नाइट्रोजन के यौगिक है। मनुष्य शरीर में सबसे ज्यादा पाए जाने सबसे ज्यादा पाया जाने वाला तत्व आक्सीजन (65%), सबसे ज्यादा पाया जाने वाला अकार्बनिक अणु जल 70%, कार्बनिक अणु में प्रोटीन (10%)।

जैविक अणुओं को दो भागों में बाँटा गया है:-

1.सूक्ष्म जैव अणु

 ये कम अनुभार वाले सरल संरचनात्मक अणु है, जो जल एवं अम्लीय माध्यम में घुलनशील होते हैं।

 जैसे वसा अम्ल, अमीनो अम्ल, सरल शर्करा, वसा एवं न्यूक्लिपोटाइड्स आदि

2. वृहत जैव अणु

ये अधिक अनुभार के बड़े आकार वाले जैव अणु है। इनका निर्माण सूक्ष्म अणुओं के बहुलीकरण से होता है।

जैसे:- प्रोटीन्स, पॉलीसैकेराइड, न्यूक्लिक अम्ल आदि।

कार्बोहाइड्रेट

पृथ्वी पर सबसे अधिक मात्रा में पाए जाने वाला कार्बनिक पदार्थ कार्बोहाइड्रेट ही है। जीवधारियों के लिए यह ऊर्जा का मुख्य स्रोत है। यह कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन से मिलकर बना होता है।

इसका मूलानुणती सूत्र

कार्बोहाइड्रेट हमारे शरीर का लगभग 1% भाग बनाते हैं। 1ग्राम कार्बोहाइट्रेट से 4.1 किलो कैलोरी या 17 किलो जूल ऊर्जा उत्पन्न होती हैं। हैं

कार्बोहाइड्रेट का वर्गीकरण

इन्हें तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

1. मोनोसैकेराइड

ये रंगहीन स्वाद में मीठे होते हैं। इनमें 3 से 7 कार्बन परमाणु हो सकते है।

  • (i) ट्रायोज (Triose):- 3 कार्बन, जैसे:- डाइहाइड्रोक्सीऐसिटोन, ग्लिसरल्डिहाइड
  • (ii) टेट्रोज:- 4 कार्बन जैसे:- ऐरिथ्रोज, एरिथ्रुलोज

2. ओलिगोसैकेराइड

इनका निर्माण दो या तीन मोनोसैकेराइड अणुओं के जुड़ने से होता है। यदि दो मोनोसैकेराइड अणु से मिलकर बनता हैं तो इसे डाइसैकेराइड तथा तीन मोनोसैकेराइड अणु से मिलकर बनता है तो इसे ट्राईसैकैराइड कहते हैं। जैसे-  रेफिनोज

डाइसैकेराइड के उदाहरण

  • सुक्रोज:- इसका निर्माण एक ग्लूकोज अणु तथा एक फ्रक्टॉस अणु से होता है।
  • माल्टोज:- यह दो ग्लूकोज अणुओं से मिलकर बना होता है।

3. पॉलीसॅकेराइड

इनका निर्माण अनेक मोनोसैकैराइड अणुओं के मिलने से होता हैं। ये जल में अघुलनशील, स्वादहीन होते हैं।

ये दो प्रकार के होते है

  1. होमोपॉलीसैकैराइड:-  ये समान प्रकार के मोनोसैकेराइड से बने होते हैं। जैसे सेल्युलोज, स्टार्च, ग्लाइकोजन,काइटिन, इन्सुलिन आदि।
  2. हेटेरोपॉलीसैकैराइड – ये विभिन्न प्रकार के  मोनोसैकेराइड अणुओं से मिलकर बने होते हैं।

कार्बोहाइड्रेट के काम

  • कार्बोहाइड्रेट्स सभी जीवों में मुख्य ऊर्जा स्रोत हैं। 
  • स्टार्च पौधों में तथा ग्लाइकोजन जंतुओं में संचित ईंधन स्रोत है।

प्रोटीन

सजीव शरीर का लगभग 14% भाग तथा मृत शरीर का लगभग 50% भाग प्रोटीन का बना होता है। प्रोटीन अमीनो अम्लो से मिलकर बने होते हैं। इस कारण इन्हें अमीनों के बहुलक भी कहते हैं। प्रोटीन  के निर्माण मे लगभग 20 प्रकार एक अमीनो अम्ल भाग लेते है।

प्रोटीन्स के प्रकार

ये निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं।

  1. सरल प्रोटीन
  2. जटिल प्रोटीन
  3. व्युत्पन्न प्रोटीन

(1) सरल प्रोटीन

 इनके निर्माण में केवल अमीनो अम्ल ही भाग लेते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं:-

  1. गोलाकार प्रोटीन:- जैसे- एल्यूमिन (अंडो तथा रूधिर प्लाजा में), सभी एंजाइम्स, हॉर्मोन, एन्टीबॉडीन, ग्लोबिन (हीमोम्बोनिन का प्रोटीन), मायोग्लोबिन (पेशियों का प्रोटीन)।
  2. तन्तुवत प्रोटीन्स:- ये जीवों के शरीर संरचना निर्माण में भाग लेते हैं। जैसे- एक्टिन एवं मामोसीन, फाइब्रिन (रूधिर के थक्को में) कोलेजन, आदि।

जटिल प्रोटीन

इनमें सरल प्रोटीन्स के अणु के साथ अन्य अप्रोटीन भाग भी जुड़ा रहता है। जिसे प्रोस्थेटिक कहते हैं। ये निम्न प्रकार के होते है।

  1. न्यूक्लिपोप्रोटीन:- इनमें प्रोस्थैटिक समूह के रूप में रूप में न्यूलिक अम्ल होता है। जैसे कोमैटिन, राइबोसोम आदि ।
  2. लाइपोप्रोटीन:- इनमें वसा अणु प्रोस्थैतिक समूह के रूप में पाया जाता है।  जैसे- लाइपोलिटेलिन (अंडे की जर्दी में)।

व्युत्पन्न प्रोटीन

ये आधे अधूरे प्रोटीन प्रोटीन अणु होते हैं। जैसे-  पेप्टोस, पेप्टाइड आदि।

कुछ प्रमुख प्रोटीन्स

  1. एल्का किरैटिन:- कशेरुकी जंतुओं के शल्क, पंजे, नाखून पर व पंख, रोम, ऊन, कछुओ के खोल, सींग आदि।
  2. बीटा किरैटिन:- रेशम के फाइब्रोइन प्रोटीन के अणु, मकड़ियों के जालों के रेशमी धागे।
  3. हीमोग्लोबिन:- यह RBC की एक अभिगमित प्रोटीन है।
  4. इम्यूनोग्लोबिन:- यह इम्यून तंत्र का महत्वपूर्ण गोलाकार  प्रोटीन है।

प्रोटीन के कार्य

  1. लगभग सभी एंजाइम्स प्रोटीन्स के बने होते हैं।
  2. एक्टिन तथा मायोसिन संकुचन प्रोटीन्स है, जो सभी कंकालीय पेशियों के संकुचन में भाग लेती है।
  3. रेशम में फाइब्रोइन प्रोटीन होते हैं।
  4. एंटीबोडीज या इम्यूनोग्लोब्यूटिन जोकि शरीर की सुरक्षा करती है, प्रोटीन्स से ही बनी होती हैं।

न्यूक्लिक अम्ल

न्यूक्लिक अम्ल की खोज फ्रेडरिच मिशर ने की थी, और इसे न्यूक्लीन नाम दिया। अल्टमान ने बताया कि न्यूक्लिक अम्ल तीन घटको नाइट्रोजन क्षार, पेन्टोज शर्करा व फास्फेट समूह से मिलकर बना होता है, अम्लीय प्रवृति् के कारण इसे न्यूक्लिक अम्ल कहा गया।

न्यूक्लिक अम्ल के घटक

1. फास्कोरिक अम्ल

यह दो न्यूक्लिओसाइड को जोड़ने का कार्य करता है। यह बन्ध, एस्टर फास्फेट बन्ध कहलाता है। यह एक न्यूक्लिओसाइड की शर्करा के कार्बन संख्या 3 तथा दूसरे न्यूक्लिओसाइड की शर्करा के कार्बन 5 से जुड़ता है।

2. नाइट्रोजनी क्षारक(Nitrgoen base)

न्यूक्लिक अम्ल का निर्माण करने वाले नाइट्रोजनीक्षारक को दो प्रमुख प्रकार में बांटा गया है।

(i) पिरिमिडीन(Pyrimidine):- ये द्विचक्रिय होते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं:- थायमीन (Thymine = T), साइटोसीन (Cytosine = C) एवं यूरेसिल (uracil=u)

(ii) प्यूरीन (Purines):- ये एकचक्रीय होते है। ये दो प्रकार  के होते हैं, ऐडीनिन (Adenine = A) तथा ग्वानिन (guanine=G)

न्यूक्लिओसाइड (Nucleoside)

नाइट्रोजन क्षार, तथा शर्करा मिलकर न्यूक्लिओसाइड कहलाते है।

Nitrgenous Base + PentoseSugar → Nucleoside

न्यूक्लिओटाइड

नाइट्रोजन क्षार, पेन्टोज शकर्रा तथा फास्फेट समूह मिलकर न्यूक्लिओटाइड कहलाते हैं।

Nucleoside + Phosphate group → nucleotide

एक न्यूक्लिओटाइड में शर्करा के प्रथम कार्बन (1C) पर नाइट्रोजन क्षार तथा पांचवे कार्बन (5C) पर फास्केट समूह जुड़ता हैं।

पालीन्यूक्लियोटाइड (polynuleotide)

बहुत से न्यूक्लियोटाइड श्रृंखलाबद्ध होकर बहुलक बनाते हैं। इन्हे polynuleotide कहते हैं। एक Nucleotide दूसरे Nucleotide से फास्फेट समूह द्वारा जुड़ता है।

चारगाफ नियम (Chargaff’s Rule)

चारगाक ने सन् 1950 में विभिन्न स्रोतों से DNA प्राप्त किए तथा निम्न निष्कर्ष निकाले। इन निष्कर्षो को ही चारगाफ नियम कहते हैं।

  1. सभी जीवो के DNA में पिरिमिडीन (C+T) की मात्रा प्यूरीन (A+G) के बराबर होती है, अर्थात्
    • पिरिमिडीन (C+T) = प्यूरीन (A+G)
  2. सभी जीवों के DNA में साइटोसीन (c) की मात्रा ग्वानीन (G) के तथा थायमीन (T) की मात्रा ऐडीनीन (A) के बराबर होती है।
    • थायमीन (T) = एडीनीन (A)
  3. एक ही जाति के जीवों के DNA में साइटोसीन तथा ग्वानीन (C+G) एवं एवं थायमीन तथा एडीनीन (T+A) का अनुपात समान रहता है, परन्तु भिन्न-भिन्न जाति के जीवों के DNA में यह अनुपात भिन्न-भिन्न होता हैं।

DNA की संरचना

वाटसन तथा क्रिक ने 1953 में DNA की संरचना का अध्ययन किया। उनके अनुसार यह द्विक कुण्डलीय संरचना हैं। इसमें पॉलीन्यूक्लियोटाइड की दो श्रृंखलाये प्रतिसमानांतर दिशाओं में हाइड्रोजन बंधों से जुड़ती है, सामान्यत: मिलने वाला DNA ‘B’ DNA दक्षिणावर्ती होता है ।

इसमें निम्न विशेषताएं

  1. DNA एक द्विक कुण्डलीय संरचना है, DNA की कुण्डलीय संरचना का व्यास 20 A° तथा पिच 32A° होता है।
  2. दोनों प्रति समान्तर श्रृंखलाओं में क्षारक क्रम संपूरक होतो हैं।
  3. दो निकटस्थ क्षारक जोड़ो की दूरी 3.4A° होती है।
  4. A व T के मध्य दो हाइड्रोजन बन्ध तथा C व G के मध्य तीन हाइड्रोजन बन्ध मिलते हैं।

Z’DNA’ or Zipper DNA

यह DNA वामावर्त होता है। इसकी संरचना टेढ़ी-मेढ़ी होती है, इसलिए इसे zig-zig DNA भी कहते हैं।

इसकी विशेषताएँ निम्न हैं

  1. यह द्विक कुण्डलीय संरचना हैं।
  2. दोनों श्रृंखलायें प्रतिसामानांतर होती है।
  3. प्रत्येक पिच की दूरी 45A° होती हैं।
  4. कुंडली का व्यास 18A° होता है।

DNA के कार्य

यह आनुवंशिक सूचनाओं को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को स्थानान्तरित करता है।

प्रोटीन संश्लेषण के लिए यह सन्देशवाहक RNA (m- RNA) बनाता है।

लक्षण निर्धारण का नियन्त्रण DNA से ही होता है।

राइबोन्यूक्लिक अम्ल या RNA – Ribonucleic acid

RNA मुख्य रूप से पॉलीन्यूक्लियोटाइड की एकल श्रृंखला है। इसमें फास्फोरिक अम्ल, राइबोज शर्करा तथा क्षारक मिलते हैं। DNA की तरह इसमें भी 4 क्षारक मिलते हैं, दो प्यूरीन (A, G) तथा दो पिरिमिडीन(C,U)। इसमें थायमीन क्षारक के स्थान पर यूरेसिल (Uracil,U) मिलता है।

कुछ विषाणुओं जैसे- Tmv, HIV एवं रियो विषाणु में RNA पदार्थ का काम करता है।

RNA के प्रकार

यह निम्न प्रकार के होते हैं।

सन्देशवाहक RNA (m-RNA)

mRNA, DNA के ऊपर निर्देशित सूचना का संदेशवाहक है, MRNA सदैव एकरज्जुकी होता है। यह केन्द्रक में DNA से बनता है तथा प्रत्येक जीन अपना अलग mRNA अनुलेखित करती है।

  • जब mRNA केवल एक जीन से बना होता है, तब इसको मोनोसिस्ट्रोनिक अथवा मोनोजीनिक mRNA कहते हैं। यूकैरियोट का mRNA मोनोसिस्ट्रोनिक होता है।
  • जब एक mRNA दो या दो से अधिक जीन से बनता है तब उसे पॉलीसिस्ट्रोमिक अथवा पॉलीजीनिक mRNA कहते हैं। प्रोकैरियोट का mRNA पॉलीसिस्ट्रोनिक होता है।

एक मोनोसिस्ट्रोनिक mRNA की संरचना के निम्नलिखित भाग हैं:-

(i) कैप:- यूकैरियोट  तथा कुछ विषाणुओ के mRNA पर 5′ अंत पर 7- मिथाइल ग्वानोसिन समूह मिलता है, यह कैप कहलाता है।

(ii) नॉन कोडिंग क्षेत्र:- कैप के पश्चात 10 से 100 न्यूक्विलपोटाइड होते हैं, जो प्रोटीन संश्लेषण में भाग लेते हैं। इस क्षेत्र में ‘A’ तथा ‘U’ अधिक मात्रा में होते हैं।

(iii) शुरुआती कोडॉन (initiation codon):- सभी प्रोकैरियोट तथा यूकैरियोट में प्रोटीन संश्लेषण की शुरुआत शुरुआती कोडॉन AUG से होती हैं।

घुलनशील अथवा ट्रान्सफर RNA (Soluble – RNA or + -RNA)

tRNA की संरचना द्विविमीय (2d) क्लोवर की पत्ती की तरह तथा त्रिविमीय (3d) में L की तरह होती है। इसके चार भुजाएं (arms), तीन लूप (loop) तथा एक लम्प (LumP) होता है। tRNA प्रत्येक अमीनों अम्ल के लिए विशिष्ट होते है।

राइबोसोमल RNA (Ribosomal RNA or HRNA)

यह RNA केवल राइबोसोमल में मिलता है, केंद्रिका में rRNA प्रोटीन्स से जुड़कर राइबोसोम बनाते है। उसके पश्चात् राइबोसोम दो यूनिटों, एक छोटी व एक बड़ी यूनिट के रूप में कोशिकाद्रव्य में आ जाता हैं।

वसा (Lipid)

वसा हमारे भोजन का मुख्य भाग है, तथा ये ऊर्जा युक्त होते हैं।

 वसा का संचयन, जंतुओं के एडीपोज ऊतक मे त्वचा के नीचे होता है। वसा कार्बनिक यौगिक है, तथा ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व कार्बन से बनते हैं। 1 ग्राम वसा के ऑक्सीकरण से 9.3 किलोकैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती हैं।

वसा अम्ल (Fatty acid)

ये सामान्यत: 4-30 कार्बन अणु से निर्मित सीढ़ी श्रृंखला वाले होते हैं, जिनमें एक कार्बोक्सिल अम्ल (COOH) का अणु मिलता है। ये संतृप्त अथवा असंतृप्त दो प्रकार के होते हैं।

संतृप्त वसा अम्ल (Saturated Fatty acid)

इनमें कोई भी द्विसंयोजी बंध नहीं मिलता है। इनका गलनांक अधिक होता है। अतः सामान्य ताप (23°) पर ये अर्धठोस अवस्था में रहते हैं। जंतु वसा (जैसे- घी, चर्बी) में मिलने वाले पामिटिक तथा स्टीयरिक अम्ल संतृप्त वसा अम्ल है। संतृप्त वसा अम्लो के सेवन से मानव रुधिर मे कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है ‌।

असंतृप्त वसा अम्ल (Unsaturated Fatty acid)

इनमें एक या अधिक द्विसंयोजी बंध मिलते हैं। अतः इनका क्वथनांक कम होता है अर्थात सामान्य ताप पर ये तरल बने रहते हैं। इसलिए वनस्पति तेल के सेवन से रुधिर में कोलोस्ट्रॉल नहीं बढ़ता है:- जैसे ओलिक अम्ल, लिनीलीक अम्ल आदि।

वसा का वर्गीकरण:- वसा मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं।

  • सरल वसा
  • यौगिक वसा
  • व्युत्पन्न वसा

सरल वसा:- ये वसा अम्ल तथा विभिन्न प्रकार के एल्कोहल के एस्टर हैं। जैसे वसा, तेल, मोम आदि।

यौगिक वसा:- इस प्रकार के वसा, वसा अम्लो तथा एल्कोहाल के साथ-साथ कुछ अन्य पदार्थो जैसे- कार्बोहाइड्रेट, फास्फेट या प्रोटीन समूह से मिलकर बने होते हैं।

व्युत्पन्न वसा:- ये वसा सरल तथा यौगिक वसा के अपघटन से प्राप्त होते हैं। इनमें वसा अम्ल, एल्कोहॉल , मोनो तथा डाई- ग्लिसराइड, स्टेरॉयड, टरपीन तथा केरोटीनाइड मिलते हैं।

एडीनोसीन ट्राइफॉस्फेट

एडीनोसीन का अणु एडीनीन के एक अणु तथा राइबोज शर्करा के एक अणु के संयोजन से बनता है। यह एक न्यूक्लियोटाइड हैं। जब ADP का तीसरा कास्फेट अणु (PO4) से संघनन होता है तब ATP अथवा एडीनोसीन ट्राइफास्फेट बनता हैं। इस बंध के बनने से भी 7300cal/mol ऊर्जा संचित होती है। प्रकाश संश्लेषण में प्रकाश रासायनिक क्रिया के समय 18ATP का निर्माण होता है।

ATP का कार्य एवं महत्व

  1. जैविक संश्लेषी प्रक्रियाओं जैसे प्रोटीन, वसा, न्यूक्लिक अम्ल तथा कार्बोहाइड्रेट आदि के संश्लेषण में।
  2. सक्रिय खादय स्थानान्तरण में ।
  3. कोशिका विभाजन एवं श्वसन प्रक्रिया में।

विकर (Enzyme)

जीवों में कुछ ऐसे पदार्थ पाए जाते हैं, जो रासायनिक अभिक्रियाभों की दर को परिवर्तित कर देते हैं। उत्प्रेरक कहलाते हैं। समस्त एंजाइम प्रकृति में प्रोटीन होते है । अधिकांश एंजाइम जीन कोशिकाओं में बनते हैं। वही क्रिया करते हैं, तथा वे अन्तः विकर कहलाते हैं।

एंजाइम का वर्गीकरण तथा नामकरण

विकर (Enzyme, en=में, zyme= यीस्ट) का शाब्दिक अर्थ है- यीस्ट में। विकरों के वर्गीकरण के लिए भिन्न भिन्न आधारों का प्रयोग एवं विविध पद्वतियों का विकास हुआ है।

एक पद्धति के अनुसार विकर का नाम क्रियाधार के नाम के आधार पर (जिस पर वह विकर काम करता है) रखकर प्रत्यय ‘एज’ जोड़ दिया जाता है।

उदाहरण:- कार्बोहाइड्रेट पर क्रिया करने वाले विकर कार्बोहाइड्रेटज, लिपिड पर क्रिया करने वाले लाइपेज आदि कहलाते हैं।

इस पद्धति के अनुसार विकारों का वर्गीकरण ‘छः मुख्य वर्गों में किया गया है।

  1. आक्सीडोरिडक्टेज
  2. ट्रांसफरेज
  3. हाइड्रोलेज
  4. लायेज 
  5. आइसोमरेज (Isomerase)
  6. लाइमेज
  • आक्सीडोरिडक्टेज:- इस वर्ग में ऑक्सीकरण अपचयन की अभिक्रियायें उत्प्रेरित करने वाले ए़जाइम आते हैं। ये इलेक्ट्रान स्थानांतरण को उत्प्रेरित करते हैं। उदाहरण:- सविसनेट डीहाइड्रोजिनेज एंजाइम, FAD+ का FADH2 में अपचयन करता हैं।
  • ट्रांसफरेज:- वे एंजाइम जो क्रियाधार से H के अतिरिक्त अन्य किसी भी समूह को दूसरे अणु में स्थानांतरित कर देते हैं, ट्रांसफरेज कहलाते हैं।
  • हाइड्रोलेज:- वे विकर जो क्रियाधार का जल अपघटन करते हैं, हाइड्रोलेज कहलाते है। जैसे- पाचक एंजाइम, ग्लूटामीन आदि।

एंजाइम की संरचना

एंजाइम एक या अनेक बहुपेप्टाइड श्रृंखलाओं से मिलकर बना होता है। कुछ एंजाइम केवल प्रोटीन्स के बने होते हैं। जिन्हें सरल संजाइम कहते हैं। जैसे- प्रोटीएज, ऐमिलेज आदि।

किन्तु कुछ एंजाइमों में प्रोटीन के साथ नॉन-प्रोटीन पदार्थ जुड़ा रहता है। इस प्रकार के एंजाइमों को होलोएंजाइम इनके प्रोटीन भाग की एपोएंजाइम तथा प्रोटीन से भिन्न भाग को सहकारक कहते हैं।

सहकारक तीन प्रकार के होते हैं

  1. प्रोस्थैटिक समूह
  2. कोएंजाइम
  3. धातु आयन

एंजाइम के लक्षण

1. उत्प्रेरिक क्रिया:- यह विकर अत्यंत महत्वपूर्ण लक्षण है। ये जिस किसी भी अभिक्रिया में भाग लेते हैं, उसे उत्प्रेरित कर देते है किन्तु स्वतः बिना किसी परिवर्तन के ये क्रिया के अंत में पुनः प्राप्त हो जाते हैं।

2. विशिष्टता:- एंजाइम विशिष्ट होते हैं। एक विशेष क्रियाधार के लिए विशेष एंजाइम होता है, जैसे- प्रोटीन पर क्रिया करने वाला विकर स्टार्च पर  क्रिया नहीं करेगा।

3. उत्क्रमणीय प्रकृति:- ए़जाइम द्वारा उत्प्रेरित अधिकांश अभिक्रियाएँ उत्क्रमणीय होती है, परन्तु कभी- कभी दोनो क्रियाओं के विकर अलग अलग होते हैं।

Chapter 1: जीव जगत
Chapter 7: नियंत्रण और समन्वय
Chapter 8: कोशिका: जीवन की ईकाई
Chapter 10: कोशिका चक्र और कोशिका विभाजन
Chapter 11: पौधों में परिवहन
Chapter 12: खनिज पोषण
Chapter 13: उच्च पादपों में प्रकाश संश्लेषण
Chapter 15: पादप वृद्धि एवं परिवर्धन
Chapter 16: पाचन एवं अवशोषण
Chapter 19: उत्सर्जी पदार्थ एवं निष्कासन

एंजाइम क्रिया की प्रकृति

प्रत्येक एंजाइम के अणु में क्रियाधार बन्धन-स्थल मिलता है, जो क्रियाधार से बंधकर सक्रिय एंजाइम क्रियाधार जटिल का निर्माण करता है। यह जटिल अल्पावधि का केवल उत्पाद बनने तक का होता है।

सक्रिय स्थल (Active Site)

एजाइम में एक स्पष्ट स्थान होता है, जिसमें क्रियाधार बद्ध होता है। यह स्थान सक्रिय केंद्र कहलाता है।

किशर का ताला चाबी प्रतिरूप (Fischer’s Lock and key model)

एंजाइम की क्रियाविधि को समझने के के लिए एमिल किशर ने ताला चाबी मॉडल प्रस्तुत किया था। उन्होंने क्रियाधार तथा एंजाइम के बीच सक्रिय स्थल में बंधन की ताले में चाबी के समान बंधन से तुलना की तथा ताला-चाबी को ES जटिल के समान माना।

यह जटिल अत्यधिक अस्थिर होता है। इस जटिल के बनने में क्रियाधार के अणुओं की सक्रियण ऊर्जा में कमी आ जाती है। जिससे क्रियाधार उत्तेजित होकर सक्रिय अवस्था में आ जाते है, इस अवस्था में क्रियाधार अणुओं के कुछ बंध विदलनशील हो जाते हैं और क्रियाधार अंतिम उत्पाद में परिवर्तित हो जाता है।

जैव तंत्र में एंजाइम ऐसा पदार्थ है जो सक्रियण ऊर्जा दर को घटाता है। जिससे जैव रासायनिक अभिक्रियाएं उपयुक्त दर पर संपन्न होती है, और क्रियाधार का उत्पाद में रूपांतरण आसान हो जाता है ‌

एंजाइम क्रियाविधि को प्रभावित करने वाले कारक

तापमान व PH – एंजाइम सामान्यत: ताप व pH  के लघु परिसर में कार्य करते है। प्रत्येक एंजाइम की अधिकतम क्रियाशीलता एक विशेष तापमान व PH पर ही होती है, जिसे क्रमश: ईष्टतम तापक्रम व PH कहते हैं।

क्रियाधार की सांद्रता

क्रियाधार की  सांद्रता के बढ़ने के साथ-साथ पहले तो एंजाइम क्रिया की गति बढ़ाती है। अभिक्रिया अन्तोगत्वा सर्वोच्च गति प्राप्त करने के बाद क्रियाधार की सा़ंद्रता बढ़ने पर भी अग्रसर नहीं होती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि एंजाइम के अणुओ की संख्या क्रियाधार के अणुओं से कहीं कम होती हैं।

संदमक का प्रभाव

किसी भी एंजाइम की क्रियाशीलता विशिष्ट रसायनों की उपस्थिति में संवेदनशील होती है, जो एंजाइम से बंधते हैं। जब रसायन का एंजाइम से बंधने के उपरांत इसकी क्रियाशीलता बंद हो जाती है, तो इस प्रक्रिया को meboceve (inhibition) व उस रसायन को संदमक कहते हैं।

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