Class 11 Biology Chapter 15 Notes in Hindi पादप वृद्धि एवं परिवर्धन

यहाँ हमने Class 11 Biology Chapter 15 Notes in Hindi दिये है। Class 11 Biology Chapter 15 Notes in Hindi आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।

वृद्धि : मिलर के अनुसार “वृद्धि वह घटना है जिसके द्वारा किसी जीव के भार, आयतन, आकार व स्वरूप में चिरस्थायी तथा अनुत्क्रमणीय बढ़ाव होता हैं। “

पादप वृद्धि की प्रावस्थाएँ

यह मुख्यत: तीन चरणों में बटाँ हुआ है।

  1. विभज्योतिकी
  2. कोशिका दीर्घीकरण
  3. विभेदन

1. विभज्योतिको चरण: इस चरण में कोशिकाएँ मूल शिखाग्र तथा प्ररोह शिखाग्र में लगातार विभाजित होती रहती हैं।

2. कोशिका दीर्घीकरण: विभज्योतिकी के पीछे दीर्घन प्रदेश में नई कोशिकाएँ लग्बाई तथा चौड़ाई में बढ़ती हैं।

3. विभेदन: यह दीर्घन क्षेत्र के ठीक नीचे स्थित होता है। यहाँ की कोशिकाएं अपने अन्तिम आकार को प्राप्त करने के साथ-साथ कई प्रकार के जटिल एवं सरल ऊतकों में विभेदित होती है, विभेदन क्षेत्र कहलाता है।

वृद्धि दर

किसी पौधे की प्रति इकाई समय में बढ़ी हुई वृद्धि को वृद्धि दर कहा जाता है। यह अंकगणितीय या ज्यामितीय संवर्धन हो सकती है।

1. अकंगणितीय वृद्धि: यह एक सरलतम अभिव्यक्ति है जिसे निश्चित समय पर दीर्घीकृत होते मूल एवं तने में देखा जा सकता है।

2. ज्यामितीय वृद्धि: एक कोशिका का समसूत्री विभाजन करने पर बनी दो कोशिकाओं में विभाजन की क्षमता होती है तथा इनसे बनने वाली सभी संतति कोशिकाएं भी आगे ऐसा ही करती हैं।
अधिकतर प्राणियों में प्रारम्भिक वृद्धि धीमी गति से होती है और बाद में तीव्रता के साथ वे चरघातांकी दर में बढ़ती हैं।

वृद्धि की परिस्थितियाँ

इसका विवरण निम्नलिखित है:

  1. जल : वृद्धि होने से लिए आवश्यक एन्जाइम की क्रियाशीलता के लिए जल एक माध्यम उपलब्ध करता है।
  2. ऑक्सीजन : श्वसन क्रिया द्वारा ऑक्सीजन की उपस्थिति में उपापचयी ऊर्जा मुक्त होती है।
  3. पोषक तत्व : पोषक जीवद्रव्य के संश्लेषण तथा ऊर्जा के स्रोत के रूप में कार्य करते हैं।
  4. प्रकाश : सूर्य के प्रकाश में हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा कार्बोहाइड्रेट बनाते हैं।
  5. ताप : प्रत्येक पादप जीव की वृद्धि के लिए ताप अनिवार्य है।
  6. गुरुत्व : गुरुत्व के द्वारा जड़ व तने की दिशा निर्धारित होती है।

विभेदीकरण, विविभेदीकरण तथा पुनर्विभेदीकरण

1. विभेदीकरण: शीर्षस्थ व पार्श्व विभज्योतक की कोशिकाएं विभाजित होकर कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि करती है। इन कोशिकाओं में अनेक परिवर्तन होते हैं। जैसे – जीवद्रव्य में बड़ी रिक्तिका बनना, कोशिका भित्ति का मोटा होना आदि। इसी परिवर्तन को ही विभेदीकरण कहते हैं।

2. विविभेदीकरण : ऐसी जीवित स्थाई कोशिकाएं जिनमें विभाजन की क्षमता खत्म हो जाती है लेकिन वे विशेष परिस्थितियों में पुनः विभाजन की क्षमता प्राप्त कर लेती है। इसी क्षमता को विविभेदीकरण कहते हैं। जैसे- कार्क एधा, अन्तरापूलीय एधा आदि ।

3. पुनर्विभेदीकरण : विविभेदीकरण से बनी कोशिकाएं पुनः विभाजन नहीं करती है और विशेष कार्य को सम्पादित करती है। इस प्रक्रिया को पुनर्विभेदीकरण कहते हैं। जैसे- द्वितीयक जाइलम, द्वितीयक फ्लोएम की कोशिका आदि।

परिवर्धन

जीव के जीवन चक्र में आने वाले वे परिवर्तन जो बीजाकुरण से लेकर मृत्यु के पहले तक रहते हैं, परिवर्धन कहलाता है।

पादप वृद्धि नियन्त्रण हार्मोन

ये वे कार्बनिक हार्मोन होते हैं जो पौधे किसी विशेष अंग के ऊतक में संग्लेशित होता है और वहां से परिवहन द्वारा दूसरे ऊतक में पहुंचते है और उनमें हो रही वृद्धि घटनाओं पर अति कम मात्रा में प्रयुक्त होकर नियन्त्रक प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।

पादप वृद्धि नियन्त्रक को (PGR) को निम्न दो समूहों में बांटा जा सकता है –

1. पादप वृद्धि वर्धक : ऐसे पादप वृद्धि नियन्त्रक जो वृद्धि उन्नयन क्रियाकलाप में लगे होते हैं जैसे कोशिका विभाजन, कोशिका प्रसार, फलीकरण, बीज संरचना आदि पादप वृद्धि वर्धक कहलाते हैं। ये पादप वृद्धि नियन्त्रक भी कहलाते हैं जैसे – ओक्सिन, जिबरेलिन्स आदि ।

2. पादप वृद्धि बाधक या अवरोधक : वे पादप वृद्धि नियन्त्रक (PGR) पौधों के वृद्धि बाधक क्रियाकलापों जैसे प्रसुप्ति एवं विलगन में शामिल होते हैं, पादप वृद्धि बाधक कहलाते हैं। जैसे – ऐन्सिसिक अम्ल PGR इसी समूह का सदस्य है।

कुछ प्रमुख पादप वृद्धि नियन्त्रक निम्नलिखित हैं:

ऑक्सिन

ऑक्सिन मूलत: तने एवं मूल के बढ़ते हुए शिखर पर बनता है और वहाँ से क्रियाशीलता वाले भाग में जाता है। कुछ ऑक्सिन जैसे इन्डोल – 3 एसिटिक अम्ल व इन्डोल ब्यूटेरिक अम्ल को पौधों से भी प्राप्त करते हैं।

ऑक्सिन की रासायनिक प्रकृति : इस आधार पर ऑक्सिन मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं –

1. प्राकृतिक ऑकिसन: ये पौधे में बनते हैं जैसे – इण्डोल एसिटिक अम्ल |

2. संश्लेषित ऑक्सिन: इनमे इण्डोल पाइरूविक अम्ल, नैफ्थेलीन एसिटिक अम्ल आदि आते है।

ऑकिसन के कार्य : ये बागवानी एवं खेती में काम आते हैं-

  1. ऑक्सिन पुरानी एवं परिपक्व पत्तियों एवं फलों के विलगन को बढ़ावा देता है।
  2. ऑक्सिन की उपयुक्त मात्रा कोशिका विभाजन को प्ररित करती है जैसे- कैलस निर्माण के समय।
  3. पौधे के कलम में ऑक्सिन की अल्प मात्रा के झिड़काव से अपस्थानिक जड़े बनती है।
  4. ऑक्सिन की सहायता से टमाटर, नीबू सन्तरा, केला आदि फलों में निषेचन के बिना फल का विकास होता है।
  5. ऑक्सिन का झिड़काव करने से कमजोर पौधे मजबूत हो जाते हैं।

जिबरेलिन्स

सभी जिबरेलिन्स अम्लीय होते हैं। यह हार्मोन कवक सहित उच्च श्रेणी के पौधों में पाया जाता है।

जिबरेलिन्स के कार्य

  • i) इसके प्रयोग से कुछ पौधों में अनिपेकफलन द्वारा बीजरहित फलों का निर्माण होता है। जैसे- सेब, टमाटर, अंगूर आदि।
  • ii) इसके प्रयोग से आलू के कन्द में निकलने वाली शीतकालीन कलियों की प्रस्तुति दूर हो जाती है।
  • iii) ऐसे बीज जो अंकुरित हो रहे है जिबरेलिन्स a – एमाइलेज नामक एन्जाइम के संश्लेषण को बढ़ा देता है।
  • iv) जिबरेलिन्स के झिड़काव से प्रकाश की कम अवधि में भी पुष्प बनने लगते हैं।
  • v) जिबरेलिन्स जरावस्था को रोकते हैं जिस कारण पेड़ पर फल अधिक समय तक लगे रह सकें और बाजार में भी इनकी उपलब्धता बनी रहे।

साइटोकाइनिन

ये ऑक्सिन की सहायता से कोशिका एवं कोशिका द्रव्य के विभाजन में सहायक होते हैं। पौधे से प्राप्त प्रमुख साइटोकाइनिन, जिएटिन, डाइहाइड्रोजिएटिन, ट्राइकेंथेन आदि हैं।

साइटोकाइनिन के कार्य

  1. कुछ परिस्थितियों में ये ऑक्सिन से मिलकर कोशिका विभाजन की दर बढ़ाते है और ऊतक संवर्धन में कैलस निर्माण के लिए आवश्यक हैंI
  2. इसके प्रयोग से शीर्षस्थ कलिका की उपस्थिति में भी पार्श्व कलिकाओं की वृद्धि होती रहती है।
  3. साइटोकाइनिन जीर्णता को रोकने का काम करता है।
  4. यह बीजों के अंकुरण में सहयोग करता है।

वृद्धिदरोधक पदार्थ

  1. वृद्धिवर्धक पदार्थों और वृद्धि रोधक पदार्थों को सम्मिलित रूप से वृद्धि नियामक पदार्थ कहते हैं।
  2. ऑक्सिन, जिबरेलिन्स एवं साइटोकाइनिन वृद्धिवर्धक का कार्य करते हैं।
  3. ABA और इथाइलीन वृद्धिदरोधक का कार्य करते हैं।

ऐबसिसिक अम्ल (ABA)

पत्तियों में जैन्थोफिल से ABA का संश्लेषण होता है। जहां से यह फ्लोएम द्वारा तने के शीर्ष भाग में स्थानान्तरित होता है। इसे स्ट्रेस हार्मोन भी कहते हैं ।

ऐबसिसिक अम्ल के कार्य

  1. यह प्रतिकूल परिस्थितियों जैसे ठण्ड मौसम में बीजों के अंकुरण को रोक देता है।
  2. पत्तियों पर ABA के विलयन का झिड़काव करने पर पत्तिया पौधो से अलग हो जाती है।
  3. इसके प्रयोग से पत्तियों में जीर्णता की स्थिति उत्पन्न होती है और पत्तिया पौधो से अलग होने लगती हैं।
  4. ABA अनाज के बीजों में a ऐमिलेज एन्जाइम के संश्लेषण को अवरुद्ध करके बीजों के अकुंरण को रोक देता है।
  5. ABA कोशिका विभाजन एवं कोशिका दीर्घन दोनों को रोकता है।

एथिलीन

यह गैस फलो के पकने को प्रेरित करती है। सन् 1962 में बर्ग ने इस पादप हार्मोन के रूप में मान्यता प्रदान की।

  • यह एक पादप वृद्धि नियन्त्रक है।
  • यह फलों को पकाने में बहुत प्रभावी है।
  • एथिलीन बीज तथा कलिका प्रसुप्ति को तोड़ती है।

Chapter 1: जीव जगत
Chapter 7: नियंत्रण और समन्वय
Chapter 8: कोशिका: जीवन की ईकाई
Chapter 10: कोशिका चक्र और कोशिका विभाजन
Chapter 11: पौधों में परिवहन
Chapter 12: खनिज पोषण
Chapter 13: उच्च पादपों में प्रकाश संश्लेषण
Chapter 16: पाचन एवं अवशोषण

बीज का अंकुरण

यदि किसी पादप बीज को अनुकूल दशा में रखा जाए तो उसमें होने वाले वे परिवर्तन जिनसे बीज निकलकर स्थापित होता है बीज का अंकुरण कहलाता है।

  • इसके लिए जल, ताप व ऑक्सीजन की जरूरत होती है।
  • इसके प्रमुख सहायक कारक – भोजन, हार्मोन व एन्जाइम आदि है।

बीज अंकुरण की विधियाँ : यह निम्न विधियों द्वारा होता है।

1. अधोभूमिक अंकुरण : यदि बीज के अकुंरण के समय बीजपत्र भूमि के अन्दर होते हैं तथा बीजाउद्वार जल का अवशोषण करता है तो बीजावरण टूट जाता है और मूल का निर्माण होता है और प्रांकुर द्वारा प्ररोह बनता है। इस विधि को अधोभूमिक अंकुरण कहते हैं। जैसे – मटर, चना, मक्का आदि।

2. भूम्युपरिक अकुंरण : बीज अंकुरण के समय बीजपत्र के मिट्टी से बाहर आ जाने पर बीज द्वितीयक जड़ द्वारा मिट्टी पर स्थापित होता है। इस विधि को भूम्युपरिक अकुंरण कहते हैं जैसे- प्याज, कद्दू आदि

बीज प्रसुप्तावस्था

बीजों में पाई जाने वाली बाधाएँ जिनके हटने को बीज अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरित होने की क्षमता खो देते है बीज प्रसुप्तावस्था कहलाता है।

प्रसुप्ति का महत्व

प्रसुप्ति के कारण बीज उचित वातावरणीय दशाओं में अंकुरित होकर नए पौधे को स्थापित करते हैं। प्रसुप्ति बीजों को सुरक्षित भी रखते हैं।

बसन्तीकरण

गुणात्मक या मात्रात्मक तौर पर कम तापक्रम पर आधारित पुष्पन की प्रक्रिया को बसन्तीकरण कहते हैं।

दीप्तिकालिता

कुछ पौधों में पुष्पन की क्रिया सिर्फ प्रकाश या अन्धकार की अवधि पर ही निर्भर नहीं करता है। इस घटना को दीप्ति कालिता कहते है। प्रकाश या अन्धकार काल का अनुभव पत्तियाँ करती हैं।

निर्णायक दीप्तिकाल या क्रांतिक दीप्तिकाल : यह एक प्रकाश अवधि है और पुष्पन के आवश्यक होती है।

  • यह अवधि किसी भी स्थिति में short day plant के लिए अधिक नहीं होनी चाहिए।
  • और long day plant में पुष्पन होने के लिए अधिक अवधि के प्रकाश की आवश्यकता होती है

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