Class 12 Biology Chapter 9 Notes in Hindi खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति

यहाँ हमने Class 12 Biology Chapter 9 Notes in Hindi दिये है। Class 12 Biology Chapter 9 Notes in Hindi आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।

Class 12 Biology Chapter 9 Notes in Hindi

जनसंख्या वृद्धि के कारण खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने वाले प्राकृतिक संसाधन कम पड़ने लगे, इस कारण मानव को खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिए नई नई कार्यनीतियाँ अपनाने की आवश्यकता हुई ।

खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिए पशुपालन एवं पादप प्रजनन से सम्बन्धित विभिन्न जैविक सिद्धान्तों का उपयोग किया जाता है।

भविष्य में बढ़ती हुई जनसंख्या, खाद्य आपूर्ति करने के लिए विभिन्न नई तकनीको जैसे पादप उत्तक संवर्धन व आनुवांशिक अभियान्त्रिकी आदि का उपयोग व्यापक पैमाने पर करना होगा।

पशुपालन (Animal Husbandry)

परिभाषा:- विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत पशुओं के पोषण, आवास, उत्पादन क्षमता तथा प्रजनन का अध्ययन किया जाता है, उसे पशुपालन कहते है।

अर्थ:- पशुपालन का अर्थ होता है, पशुओं का देखभाल करना । पशुपालन मनुष्य के लिए कल्याणकारी होता है। इसमें जैसे गाय, बकरी, भैंस, भेड़, सूअर तथा ऊँट आदि को पाला जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, रेशम कीट पालन, मोती संवर्धन आदि भी शामिल है।

उद्देश्य:- पशुपालन का उद्देश्य है, कि मनुष्य के लिए खाद्य सम्बन्धी जरूरतो को पूरा करना | हमे दूध, दही, मक्खन, पनीर, घी, खोया, शहद, अण्डे तथा माँस आदि जैसी खाद्य पदार्थ पशुपालन से ही प्राप्त होते हैं। इन पदार्थो में उत्पन्न प्रोटीन, वसा, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट एवं खनिज लवण हमारे शरीर के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ” ,

  • भारत तथा चीन में लगभग 70% से ज्यादा पशुधन है।
  • भारत व चीन का कुल फार्म उत्पाद पूरे विश्व का 25% भाग है।
  • भारत भैंसो की संख्या की दृष्टि से प्रथम स्थान पर है।
  • भारत गौपशु व बकरियों की संख्या की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है।
  • विश्व मे भेडो की संख्या की दृष्टि से भारत तृतीय स्थान पर है।
  • विश्व मे दुग्ध उत्पादन में भारत प्रथम स्थान पर है।
  • विश्व मे अण्डे व मछली उत्पादन में भारत तीसरे स्थान पर है।

पशु प्रजनन (Animal breeding)

परिभाषा:- पशु विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत पालतू पशुधन की आनुवंशिकता मे ऐसे सुधारों के लिए अध्ययन किया जाता है, जो कि मनुष्य के लिए लाभदायक होता है, उसे पशु प्रजनन कहते है।

अर्थ – पशुओं के उत्पादन, उनके पालन-पोषण तथा देखभाल से सम्बन्धित सभी प्रकार के कार्य पशुप्रजनन के अन्तर्गत ही आते है।

उद्देश्य:- पशु प्रजनन का उद्देश्य होता है कि पशुओं के उत्पादन मे एवं उनके उत्पादों की गुणवत्ता में विकास लाना। पशु प्रजनन के द्वारा ही नए नस्ल के पशुधन का विकास होता है। जिससे मनुष्य की खाद्य आवश्यकताएँ पूरी होती है। –

नस्ल:- पशुओं का ऐसा समूह जो उनके वंश के सामान्य लक्षणों जैसे दिखावट, आकृति, आकार एवं संरुपण मे समान हो तो उसे एक ही नस्ल का कहा जाता है। अनेक पशुओं की उन्नत नस्ले निम्नलिखित है जैसे-

पशुधन का नामउन्नत नस्ले
भैंसमुर्रा, नीली, मेहसाना, राबीदी
गायजर्सी, हरियाणवी, राठी
भेड़मालपुरा, मेरीनो, जैसलमेरी
बकरीबरबरी, टोगनबर्ग, बीटल
मुर्गीन्यूहेम्पशामर, ब्हाइट लेगहार्न

(1) अन्तः प्रजनन (Inbreeding)

इस प्रजनन विधि में एक ही नस्ल के 4-6 पीढ़ियों तक के सम्बन्धित नर- मादाओं में संलयन होता है, उसे अन्त: प्रजनन कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं:-

(i) सम प्रजनन:- इस प्रजनन में एक नस्ल के अत्यधिक पास वाले नर व मादाओं के मध्य संभोग होता है, उसे सम प्रजनन कहते है। जैसे- भाई-बहन, माँ-बेटे ।

(ii) भिन्न प्रजनन:- इस प्रकार प्रजनन में 4-6 पीढ़ी के दूर , सम्बन्धित पशुओं के मध्य संभोग होता है, उसे भिन्न प्रजनन कहते है। जैसे- चचेरे भाई-बहन, दादा पोती ।

अन्तः प्रजनन विधि के प्रमुख बिन्दु

  • इस विधि द्वारा एक नस्ल के सर्वश्रेष्ठ गुणों वाले नर व मादा की पहचान कर सकते है।
  • संगम से उत्पन्न होने वाले संतति का मूल्यांकन करते हैं।
  • सर्वश्रेष्ठ गुणों वाले नर व मादा के बिच संगम कराया जाता है।
  • संगम से संततियों में से सर्वश्रेष्ठ गुणों वाले नर व मादा की पहचान करना ।

अन्तः प्रजनन के लाभ

  • इस प्रजनन से अच्छे लक्षणो वाली नस्लो को तैयार करके अधिक खाद्य उत्पादन कर सकते है।
  • इस प्रजनन के माध्यम से संतति शुद्ध एवं वंशक्रम में विकसित होती है जिससे समयुग्मजता को बढ़ावा प्राप्त हो जाता है।

अन्तः प्रजनन से हानि

  • इस प्रजनन द्वारा विशेषकर निकटस्थ नस्ल के पशुओं के बीच, जनन क्षमता तथा उत्पादकता घटने लगती है।
  • अन्त: प्रजनन से उत्पन्न समयुग्मजता के कारण हानिकारक अप्रभावी जीन भी अपने हानिकारक लक्षणों को दर्शाने लगते हैं।

(2) बाह्य प्रजनन (out breeding)

इस प्रजनन मे अलग-अलग नस्लो वाले पशुओ के मध्य प्रजनन होता है, इसे बाह्य प्रजनन कहते है। इस विधि द्वारा प्रजनन अवसादन खत्म होता है, तथा पशुओ की दुग्ध उत्पादन व माँस उत्पादन में वृद्धि होती है। ये दो प्रकार की विधियाँ है: –

(i) बहिःसंकरण:- इस प्रजनन में एक ही नस्ल के ऐसे नर व मादा पशुओ के मध्य संभोग होता है, जिनके पूर्वज 4-6 पीढ़ियों तक समान नहीं होते हैं।

(ii) संकरण:- इस विधि में एक ही नस्ल के उत्तम गुण वाले नर का दूसरी नस्ल की उत्तम गुण वाली मादा से प्रजनन कराया जाता है। संकरण का मुख्य उद्देश्य व्यावसायिक दृष्टि से उन्नत नस्लो का निर्माण करना होता है। जैसे- भेड की हिसरडेल नस्ल

(iii) अन्तः विशिष्ट संकरण:- इस विधि में दो अलग-अलग जातियो के नर व मादा के मध्य संगम कराया जाता है जिससे उत्पन्न संतति में दोनो जातियो के लक्षण दिखाई देते हैं, परन्तु ये बंध्य होते है। जैसे-खच्चर

(3) कृत्रिम प्रजनन या कृत्रिम गर्भाधान

इसमे उच्च वांछित गुण वाले नर का वीर्य लेकर विशेष उपकरण द्वारा मादा के ऋतुकाल मे आने पर मादा के जनन मार्ग में प्रवेश कराया जाता है, इसे कृत्रिम गर्भाधान कहते है। इस विधि में एक ही नर के वीर्य से विभिन्न मादा पशुओं में गर्भधारण कराया जा सकता है। इस विधि का उपयोग भेड़, खरगोश, भैंस आदि के लिए किया जाता है।

फार्म तथा फार्म पशुओं का प्रबंधन

फार्म प्रबन्धन की परम्परागत पद्धतियो को व्यावसायिक दृष्टि से लाभदायक बनाया जाना आवश्यक है। इसके लिए नवीन तकनीको को भी अपनाना जरूरी है। इससे खाद्य उत्पादन में तथा गुणवत्ता में भी वृद्धि होगी। फार्म प्रबंधन की कुछ प्रमुख प्रक्रियाये निम्नलिखित है।

डेरी फार्म प्रबन्धन

दूध के उत्पादन एवं उसके गुणो में वृद्धि लाने के लिए जो संसाधन एवं तंत्रो का उपयोग किया जाता है, वे डेरी फार्म प्रबन्धन के अन्तर्गत आते है के अन्तर्गत आते है। उत्तम गुणवत्ता वाले डेरी उत्पाद बनाने के लिए डेरी फार्म प्रबन्धन पर ज़्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है। इसके लिए विभिन्न उपाय का प्रयोग किया जा सकता है।

(i) नस्ल:- डेरी फार्म के अन्तर्गत अच्छी नस्ल के पशु होने चाहिए। मादा पशु अधिक व अच्छी गुणो के दूध उत्पन्न करने वाली तथा नर पशु उत्कृष्ट संतति उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। जैसे – मूर्रा नस्ल की भैंस, जर्सी नस्ल की गाय आदि। \

(ii) पशु आहार:- पशु आहार पौष्टिक एवं आदर्श होना चाहिए और इसे पशुओ के जरूरत के अनुसार वैज्ञानिक तरीको से देना चाहिए।

(iii) आवास:- डेरी फार्म मे पशुओ के रहने के लिए अच्छी व पूरी व्यवस्था होनी चाहिए तथा आवास की साफ-सफाई और नमी, वायु, तापमान सही होनी चाहिए।

(iv) पशु स्वास्थ्य:- बीमारियो से बचाव के लिए टीकाकरण कराना चाहिए और समय-समय पर पशु चिकित्सक से पशु के स्वास्थ्य की जाँच कराना चाहिए।

(v) प्रशिक्षित पशुपालक:- पशुपालक प्रशिक्षित होना चाहिए। उसे पशुओ के मदकाल, प्रजनन व नवजात शिशुओ की देखभाल करने की पूरी जानकारी होना चाहिए।

(vi) रिकार्ड रखना व निरीक्षण करना:- डेरी फार्म में पशुओं से सम्बन्धित उचित रिकार्ड रखना चाहिए और समय-समय पर उसको देखना भी चाहिए।

(vii) डेरी उत्पाद भण्डारण व परिवहन – डेरी मे डेरी उत्पाद को सुरक्षित रखने के लिए उचित व्यवस्था होनी चाहिए ताकि वे खराब न हो सके। गाय, भैंस, बकरी →दूध, दही, पनीर, द्वाद, घी, बटर आदि

श्वेत क्रान्ति

यह क्रान्ति डेरी उत्पादो मे हुए क्रान्ति के बीच सम्भव हुई। राष्ट्रीय स्तर पर दुग्ध उत्पाद व गुणवत्ता में वृद्धि करने के लिए राष्ट्रीय डेरी विकास निगम ने महत्त्वपूर्ण प्रयास किए। इस निगम ने ‘आपरेशन फ्लड’ के तहत विश्व में सबसे बड़ी दूध सहकारी योजना प्रारम्भ की जिसकी पहुँच राष्ट्रीय स्तर पर छोटे छोटे गाँवों में बनी हुई है। इसका मुख्य उद्देश्य डेरी के क्षेत्र मे आत्मनिर्भरता लाना है।

कुक्कुट फार्म प्रबन्धन

कुक्कुट पालन या मुर्गीपालन माँस व अण्डो को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इसमे केवल मुर्गियों का ही नही बल्कि बटेर, बत्तख व टर्की आदि पक्षियों का पालन भी किया जाता है।

(i) नस्ल:- मुर्गी, टर्की व बत्तख सभी अच्छी नस्ल वाली होनी चाहीय। बॉयलर्स को माँस उत्पादन के लिए अच्छी नस्ल की मुर्गी कहा जाता है। इसी प्रकार जिन मुर्गियो का प्रयोग अण्डे उत्पादन के लिए किया जाता है, उसे लेयर्स कहते हैं। उदाहरण:-

  • मुर्गी:- व्हाइट लेगहार्न, रॉक
  • बत्तख:- भारतीय रनर, मस्कोरी, केम्पबेल
  • टर्की: नार्फोल्ड, ब्रिटिश व्हाइट

(ii) आवास:- कुक्कुट शाला में जल, ताप, हवा व प्रकाश की उचित मात्रा होनी चाहिए। फर्श पर लकड़ी का बुरादा, सूखे पत्ते आदि होना चाहिए।

(iii) भोजन:- कुक्कुट खाने में प्रोटीन, खनिज, विटामिन, कैल्शियम वं कार्बोहाइट्रेट की उचित मात्रा होनी चाहिए ।

(iv) स्वास्थ्य:- मुर्गियो में कई प्रकार के रोग हो जाते हैं। कुछ रोगो का संक्रमण बहुत ही घातक होता है, जिसका इलाज न करने से कुछ ही समय में व्यापक हानि हो जाती है। मुर्गियो में पाये जाने वाला एक विषाणुजनित सामान्य रोग रानीखेत है। बर्ड फ्लू भी मुर्गी व पक्षियों में होने वाला रोग है, जो विषाणु जनित है।

(v) प्रशिक्षण:- कुक्कुट फार्म प्रबन्धन के लिए प्रबन्धक को कुक्कुट पालन से जुड़ी सारी जानकारी होनी चाहिए।

(vi) रिकार्ड रखना व निरिक्षण:- मुर्गियो के विभिन्न क्रियाओं का रिकार्ड रखना चाहिए और उनका समय-समय पर जाँच करना चाहिए

(vii) उत्पाद भण्डारण व परिवहन:- कुक्कुट फार्म में कुक्कुट उत्पादों के भण्डारण के लिए उचित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे अधिक लाभ हो।

बर्ड फ्लू

जब मुर्गियो में वायरस जनित रोग के विषाणु जातीय विशिष्टता को तोड़कर दूसरे प्राणियो में फैलने लगते है, तो ये बहुत घातक सिद्ध होते है। बर्ड फ्लू भी इसी प्रकार का एक विषाणु है। इस विषाणु का संक्रमण मनुष्य में होने पर निम्न लक्षण दिखाई देते हैं।

जैसे- बुखार, कमजोरी व पेशियों में दर्द, खाँसी, साँस लेने में परेशानी, डायरिया आदि।

रोग कारक:- इन्फ्लून्जा ए या H5N वायरस |

कारण:-

  • प्रदूषित डेरी उत्पादों का सेवन ।
  • प्रदूषित डेरी अपशिष्ट के सम्पर्क में आना ।
  • प्रदूषित हवा के सम्पर्क में आना ।

रोकथाम

  • डेरी उत्पादो का सेवन अच्छी तरह से पकाकर करना चाहिए।
  • भोजन करने से पहले हाथ साफ धोने चाहिए।
  • जो पक्षी रोगग्रस्थ है उन्हें पशुचिकित्सा अधिकारियों को दिखाना चाहिए।

उपचार:- प्रतिविषाणु औषधियों का सेवन करना चाहिए। जैसे- ऑसेल्टामिविर का सेवन।

मुख्य प्रभावित क्षेत्र:- चीन, हांगकांग व इन्डोनेशिया आदि देश ।

मात्स्यकी या मत्स्य पालन

परिभाषा:- खाद्य पदार्थ की प्राप्ति के लिए मछलियों के पालन को मत्स्य पालन कहते हैं।

  • मछलियो तथा अन्य जलीय जीवों को पकड़ने, देखभाल करने तथा उन्हें बेचने से सम्बन्धित उद्योग को मात्स्यकी कहते है।
  • मछली उद्योग में भारत का विश्व में चौथा तथा जल कृषि के क्षेत्र मे दूसरा स्थान है।

मत्स्य पालन के आर्थिक लाभ

  • मछलियों के यकृत मे विटामिन A व D की अधिक मात्रा पाई जाती है। मछली में प्रोटीन, विटामिन, आयोडीन तथा अमीनो अम्ल अधिक मात्रा में पाये जाते हैं।
  • कुछ मछलियाँ घर तथा इमारतो की शोभा बढ़ाने का कार्य करते है।

मधुमक्खी पालन

शहद उत्पादन के लिए मधुमक्खियो के छत्तो की देखभाल करना ही मधुमक्खी पालन कहलाता है। मधुमक्खी को प्राचीन काल से ही पाला जाता है। मधुमक्खी पालन से केवल शहद ही नही बल्कि मोम भी प्राप्त होता है, जिसे बी- वेक्स कहते है। इस मोम का उपयोग सौन्दर्यवर्धक पदार्थ या पॉलिश बनाने मे किया जाता है।

प्रजातियाँ:- इपिस इन्डिका, एपिस मैलीफेरा, एपिस फ्लोरिया।

सामाजिक संगठन:- जिस प्रकार चीटियो व दीमक मे सामाजिक संगठन पाया जाता है, ठीक उसी प्रकार मधुमक्खियो में भी सामाजिक संगठन पाया जाता है। यह मोम के भीतर हजारो की संख्या में कॉलोनी बनाकर रहती है। इनके कालोनी में तीन प्रकार के सदस्य होते हैं:

रानी, नर तथा श्रमिक

विधि:-

  • वृन्दन के समय मधुमक्खियो को पकड़ा जाता है।
  • कुछ श्रमिक व एक रानी मक्खी को कृत्रिम छत्ते के शिशु खण्ड मे छोड़ा जाता है।
  • इन्हे भोजन के रूप मे चीनी व जल का घोल दिया जाता है ।
  • इन कृत्रिम छत्तो को छाया मे व कृत्रिम जल स्त्रोत के पास खेत मे रखा जाता है।
  • सही समय पर सावधानीपूर्वक शब्द निकाला जाता है।

सावधानियाँ:-

  • मधुमक्खी पालक को मधुमक्खियो के स्वभाव, प्रकृति, व्यवहार, प्रजातियो और उनके जीवन चक्र के बारे मे जानकारी होनी चाहिए।
  • छत्ते के पास मकरंद वाले पुष्पो के पौधे होने चाहिए।

पादप प्रजनन

पादप प्रजनन विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत वास्तविक जाति के पौधो के आनुवांशिक लक्षणो मे सुधार कर उन्नत किस्म की नयी जातियो का विकास किया जाता है।

उद्देश्य

  • कम उपज वाली फसल से अधिक उपज वाली किस्मो का विकास करना।
  • फसल की उपज के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता में भी सुधार।
  • जल्दी पकने वाली किस्मो का विकास करना ।
  • रोग व कीटो से फसल की हानि को बचाने के लिए रोधी किस्मो का विकास करना ।
  • मृदा की लवणता, अम्लीयता, क्षारीयता के प्रति प्रतिरोधी किस्मे तैयार करना ।

नई आनुवांशिक किस्म के विकास के प्रमुख चरण

(1) विभिन्नताओ का संग्रहण:- आनुवांशिक विभिन्नताएँ पादप प्रजनन का मुख्य आधार होती है। विभिन्नता किसी पादप जाति के सदस्यो में वातावरणीय कारको व आनुवांशिक कारको के द्वारा उत्पन्न होती है। किसी पादप की जीनी संरचना में बदलाव के कारण जो विभिन्नता उत्पन्न होती है। उसे आनुवांशिक विभिन्नता कहते हैं।

(2) जनको का मूल्याकन एवं चयन:- जनन द्रव्य का मूल्यांकन वांछित लक्षणो के सन्दर्भ में किया जाता है। इसके बाद चुने गये वांछित लक्षणो वाले उत्कृष्ट पादपो की संख्या बढ़ जाती है। जब जरूरत होती है तो शुद्ध वंशक्रम को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार पाये गए जनको में संकरण कराया जा सकता है

(3) चयनित पादपो के बीच परसंकरण:- चुने गये अलग-अलग जनको में पाये जाने वाले वांछित लक्षणों को परसंकरण द्वारा एकत्रित करके एक ही पादप में लाया जाता है। वांछित लक्षणों वाले जनको में एक के परागकण को दूसरे जनक के वतिकाग्र तक पहुंचाते है।

(4) श्रेष्ठ पुनर्योगजो का चयन एवं परिक्षण:- इसमे संकर संततियो में से वांछित लक्षणों वाले पौध का चयन किया जाता है। इसके बाद इन पौधो का वैज्ञानिक तरीके से मूल्यांकन होता है। इन पादपो में कई पीढ़ियो तक स्वपरागण करा के समरूपता उत्पन्न की जा सकती है।

(5) नवीन किस्म का परीक्षण, निर्मक्तन एवं व्यवसायीकरण:- इसमे पादप प्रजनक नई किस्म के उपज, उत्पादकता, गुणवत्ता, कीटप्रतिरोधकता आदि के आधार पर इनका मूल्यांकन किया जाता है।

(6) बीजगुणन तथा वितरण:- मोचन के बाद इस नई किस्म के बीजो का गुणन होता है जिससे कि किसान नई किस्म को ज्यादा से ज्यादा उगा सके ।

रोग प्रतिरोधी किस्मो का विकास

विभिन्न पादपो व फसलो में कई प्रकार के जीवाणु, विषाणु व कवक जनित रोग उत्पन्न हो जाते है। इन रोगो के कारण 20-30% से लेकर 100% तक की फसले नष्ट होने लगती है। इस स्थिति मे रोगो से बचने के लिए रोग प्रतिरोधी किस्मो का निर्माण होना आवश्यक है। इन रोग प्रतिरोधी किस्मो का उपयोग करके न ही केवल पादपो को बचाया जा सकता है बल्कि इसके कारण किसान को जो हानि होती है, उससे भी बचा जा सकता है।

रोग प्रतिरोधकता के विकास की प्रमुख विधियाँ :-

संकरण एवं चयन:- संकरण एवं चयन रोग प्रतिरोधकता उत्पन्न करने की परम्परागत विधियो मे प्रमुख है।

इसके अन्तर्गत निम्न पदो को अपनाया जा सकता है:-

  • वांछित लक्षण के स्रोत वाले पादपो की पहचान व चयन करना।
  • चयनित जनको का संकरण करना।
  • संकर पादपो का मूल्यांकन व चयन करना।
  • नई किस्मों का परीक्षण करना ।

रोग प्रतिरोधी की कुछ किस्मे निम्न है:-

  • गेहूँ की हिमगिरि किस्म:- पर्ण व धारी किट्‌ट तथा हिलबंद रोग प्रतिरोधी ।
  • सरसो की पूसा स्वर्णिम किस्म:- श्वेत किट्‌ट रोग प्रतिरोधी ।
  • फूलगोभी की पूसा शुभ्रा किस्म:- कृष्ण विलगन व कुंचित अंगमारी प्रतिरोधी ।
  • मिर्च की पूसा सदाबहार:- चिली मोजक वायरस व पर्णकुंचन प्रतिरोधी ।

उत्परिवर्तन

पादपो के आनुवंशिक लक्षणो मे अचानक दिखाई देने वाले परिवर्तन को उत्परिवर्तन कहा जाता है। विभिन्न उत्परिवर्तन मे से कुछ ही उत्परिवर्तन लाभदायक होते है जिसका उपयोग करके रोग प्रतिरोधी लक्षणो का विकास किया जा सकता है।

पीडक या नाशीकीट प्रतिरोधी किस्मो का विकास

कीटो व पीडको के द्वारा फसलो का बहुत नुकसान होता है। इसके रोकथाम के लिए कीटनाशी व पीडकनाशी रसायनो के उपयोग के कारण स्वास्थ्य पर उल्टा प्रभाव पड़ रहा है। कीटनाशी व पीडकनाशी का बिना सोचे-समझे प्रयोग करने से खाद्य पदार्थ जहरीले होते जा रहे है।

संकरण व चयन द्वारा उत्पन्न कुछ प्रमुख नाशीकीट प्रतिरोधी किस्मे निम्न इस प्रकार से है :-

  • बेसिका की एफिड प्रतिरोधी किस्म – पूसा गौरव
  • फ्लेट बीन की जैसिड, एफिड व फल भेदक प्रतिरोधी किरण – पूसा सेम
  • ओकरा की तना व फल भेदक कीट प्रतिरोधी किस्म -पूसा-ए-4, पूसा स्वामी

उन्नत खाद्य गुणवत्ता वाली किस्मों का विकास

उन्नत खाद्य गुणवत्ता वाली किस्मो का विकास करना अति आवश्यक है ताकि मनुष्य को पोषक, संतुलित आहार सही मात्रा में प्राप्त हो सके । आज लगभग 840 मिलियन लोग भूखमरी तथा 3 बिलियन लोग कुपोषण से ग्रस्त है, भोजन में आयोडीन, विटामिन ए, जिंक की कमी होने के कारण कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।

जैव पुष्टीकरण या जैव प्रबलीकरण

लोगो के स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए ज्यादा विटामिन व खनिज या उच्च प्रोटीन वाली फसलो का ज्यादा महत्त्व है। फसलो में विटामिन, तेल, प्रोटीन, खनिज, पोषक तत्व की मात्रा बढ़ाना ही खाद्य गुणवत्ता का प्रमुख उद्देश्य है।

वह पोषक अंश जिसकी प्रचुरता होती है।सब्जियो की फसलो का नाम
विटामिन एगाजार, पालक एवं कद्दू
विटामिन-सीकरेला, बथुआ, सरसो व टमाटर
आयरन व कैल्शियमपालक एवं बथुआ
प्रोटीनब्रॉडवीस, लबलव व उद्यान मटर

मक्का, गेहूँ, धान की उन्नत किस्मी का विकास संकरण द्वारा किया गया।

अधिक उत्पादन वाली किस्मो का विकास तथा हरित क्रान्ति

आजादी के पश्चात् भारत मे खाद्य समस्या को दूर करने के लिए अधिक उत्पादन वाली किस्मो के निर्माण की जरूरत हुई। 1960 के बाद विभिन्न पादप प्रजनन तकनीको द्वारा गेहूँ व धान की अनेक उच्च उत्पादन वाली किस्मो का विकास हुआ। इसी अवस्था की हरित क्रान्ति के नाम से जाना गया। हरित क्रान्ति का जनक भारत में डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन को माना जाता है।

गेहूँ एवं धान :-

गेहूँ की अर्द्धवामन किस्म का विकास नॉरमन ई० बोरलॉग ने किया।

गेहूं की सोनालिका व कल्याण सोना किस्मो का प्रयोग भारत में 1963 मे हुआ ।

गेहूँ व धान की ज्यादा उत्पादन वाली किस्मो का ही परिणाम हरित क्रान्ति के रूप मे हुआ।

गन्ना:- अधिक शर्करा उत्पादन करने वाले गन्ने की संकर किस्म का निर्माण किया गया ।

गन्ने की संकर किस्म

सेकेरम बरबरीसेकेरम ऑफिसीनेरम
उत्तरी भारत की जलवायु के प्रति अनुकूलित ।दक्षिणी भारत की जलवायु के प्रति अनुकूलित ।
पतला तना व कम शर्करा अंश।मोटा तना व अधिक शर्करा अंश।

लक्षण:-

  • उत्पादन उत्तरी भारत की जलवायु मे सम्भव ।
  • अधिक शर्करा अंश व तना मोटा ।

ज्वार, मक्का एवं बाजरा:- हमारे देश मे इनका अधिक उत्पादन एवं जलाभाव प्रतिरोधी किस्मो का निर्माण संकरण के माध्यम से किया जाता है।

ऊतक संवर्धन

जब विश्व में खाद्य पदार्थ की समस्या का समाधान परम्परागत प्रजनन तकनीको से नही हुआ तो ऊतक संवर्धन तकनीक विकसित की गई।

परिभाषा:- पादप कोशिका, ऊतक या अंग के माध्यम से परखनली मे उचित पोषको की उपस्थिति में या निर्जमीकृत परिस्थितियो में नए पादप के बनने की प्रक्रिया को ऊतक संवर्धन कहते है।

परिचय:- इस विधि को सूक्ष्मप्रवर्धन भी कहते हैं। यह पादप पुनजर्नन की तकनीक होती है, जिससे ज्यादा से ज्यादा पौधे कुछ ही समय में प्रयोगशाला द्वारा तैयार किये जा सकते है। पौधे का वह भाग जिसे ऊतक संवर्धन मे प्रयोग में लिया जाता है, उसे कर्तोतक कहा जाता है। जब कर्तोतक को पौधे से पृथक करके, निर्जमीकृत परिस्थितियो मे, पोषक माध्यम पर सही वातावरण मे रखा जाता है तो कोशिकाओ के नए समूह का निर्माण होता है, जिसे कैलस कहते है। ये ही आगे जाकर एक नया पौधा निर्मित करता है।

उद्देश्य:-

  • रोग रहित पौधे का उत्पादन करना।
  • पादपों की संख्या में वृद्धि होना।
  • दूरस्थ संकरण करना ।
  • अगुणित पौधो का निर्माण करना। सुप्तावस्था को पूरा करना।
  • वांछित लक्षणो वाले पादप का निर्माण करना ।

विधि के प्रमुख चरण:-

  • (i) संवर्धन व पात्रो की धुलाई करना।
  • (ii) कृतोतक प्राप्त करना ।
  • (iii) संवर्धन माध्यम व कृतोतक का रख-रखाव करना ।
  • (iv) प्रेक्षण करना व संवर्धित करना ।

उपयोग:-

लक्ष्यो व उद्देश्यों की पूर्ति करने में सहायता करना ।

रोगरहित पादप तैयार करने मे:- ऊतक संवर्धन से रोगग्रस्त पौधो से भी रोगमुक्त पादप तैयार किये जा सकते है। इस विधि में केले व गन्ने के रोगमुक्त पौधे तैयार किए गए।

एकल कोशिका प्रोटीन

अधिक संख्या मे मनुष्य व पशु कुपोषण व भूख के शिकार हो रहे है। इनके लिए कोई भी परम्परागत पादप प्रजनन की विधियाँ पर्याप्त नही है। जैसे-जैसे मांसाहार वृद्धि हुई वैसे-वैसे धान्य फसलो व पशु आहार की मांग भी बढ़ती जा रही है, क्योंकि पशु फार्मिंग द्वारा एक Kg माँस प्राप्त करने के लिए 3-10kg अनाज की जरूरत होती है।

इन सब समस्याओ का हल कोशिका प्रोटीन द्वारा हो जा सकता है। भोजन व चारे के रूप मे सूक्ष्म जीवो की कोशिकाओ का प्रयोग किया जाता है, जिसे सूक्ष्म जैविक प्रोटीन कहते है। ये एकल कोशिकाएँ होती है इसलिए इन्हें एकल कोशिका प्रोटीन भी कहा जाता है। अर्थात् सूक्ष्म जीवों द्वारा प्राप्त प्रोटीन को ही एकल कोशिका प्रोटीन कहते हैं।

आनुवंशिक अभियान्त्रिकी

किसी भी वांछित जीन को आनुवांशिक अभियांत्रिकी द्वारा किसी भी पौधे या जन्तु की कोशिकाओ मे भेजकर वांछित वाले लक्षण व उच्चतम गुणो वाले पादप व जन्तु प्राप्त किये जा सकते हैं। ऐसे पादपो को ट्रांसजैनिक पादप व ट्रांसजैनिक जन्तु कहा जाता है। ये आनुवंशिक रूपान्त्रित जीव के रूप में होते है।

आनुवांशिक अभियान्त्रिकी द्वारा उत्पन्न किये गए निम्न उदाहरण है-

(i) फ्लेवर सेवर:- लम्बे समय तक खराब न होने वाला व अधिक खाद वाला होता है। 1

(ii) गोल्डेन राइस:- इसमें विटामिन ए अधिक मात्रा में होता है। इसका निर्माण चावल मे डेफोडिल नामक पादप के B कैरोटिन बनाने वाले जीन के स्थानान्तरण से निर्मित किया है।

(iii) ट्रान्सजैनिक जन्तु:- जन्तुओ मे जीन स्थानान्तरण के माध्यम से वांछित गुणो को प्राप्त किया गया जिससे खाद्य सम्बन्धी समस्या दूर हो सकती है। जैसे- पशुओ मे दूग्ध व माँस उत्पादन में वृद्धि हो सकती है।

Chapter 1 जीवो मे जन
Chapter 2 पुष्पी पौधो में लैंगिक जनन
Chapter 3 मानव जनन
Chapter 4 जनन स्वास्थ्य
Chapter 5 वंशागति एवं विविधता के सिद्धांत
Chapter 6 वंशागति का आणविक आधार
Chapter 7 विकास
Chapter 8 मानव स्वास्थ्य तथा रोग

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