Class 12 Biology Chapter 8 Notes in Hindi मानव स्वास्थ्य तथा रोग

यहाँ हमने Class 12 Biology Chapter 8 Notes in Hindi दिये है। Class 12 Biology Chapter 8 Notes in Hindi आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।

Class 12 Biology Chapter 8 Notes in Hindi

स्वास्थ्य- W.H.O के अनुसार स्वास्थ्य का अर्थ है, प्राणी का शरीर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से अच्छा होना, स्वास्थ्य कहलाता है।

रोग- शरीर की सामान्य अवस्था में किसी प्रकार की असमान्य परिवर्तन या दुर्बलता उत्पन्न होता है, तो उसे रोग कहते है।

रोगों के प्रकार (Types of Diseases)

मानव मे होने वाले रोगो को दो भागो मे बाटा जा सकता है।

(1) जन्मजात रोग

वे रोग जो मानव मे जन्म से ही होते है जन्मजात रोग कहलाते है।

ये रोग निम्नलिखित कारणों से हो सकते हैं:-

(i) किसी जीन मे उत्परिवर्तन द्वारा ; जैसे – हीमोफीलिया, वर्णान्धता, सिकिल सेल एनीमिया आदि ।

(ii) गुणसूत्रीय असामान्यताओं द्वारा ; जैसे- डाउन सिन्ड्रोम ,टर्नर सिन्ड्रोम, क्लाइने फिल्टर सिड्रोम |

(iii) वातावरणीय कारको द्वारा ; जैसे- कटा हुआ होठ, कटा हुआ तालु ।

2. उपार्जित रोग –

ये रोग जन्म से नहीं होते परन्तु जन्म के बाद किसी कारणवश उत्पन्न होते है, उपार्जित रोग कहलाते है।

उपार्जित रोग दो प्रकार के होते है-

(i) संक्रामक या संचरणीय रोग – ऐसे रोग जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति मे फैलते हैं, उन्हें संक्रामक रोग कहते है। जैसे-मलेरिया, टाइफाइड आदि ।

संक्रामक रोगो को दो प्रकारों में बाटा जा सकता है।

(a) संसर्गज रोग – ऐसे रोग जो शरीर के सम्पर्क से फैलते है, उन्हें संसर्गज रोग कहते है।

जैसे -दाद, चेचक, खसरा, कुष्ट रोग आदि।

(b) असंसर्गज रोग – ऐसे रोग जो भौतिक कारको (हवा, पानी, भोजन) और वाहको के द्वारा फैलते है, उन्हें असंसर्गज रोग कहते हैं ।

उदाहरण – हैजा, मलेरिया, प्लेग, हिपेटाइटिस आदि।

(ii) असंक्रामक या असंचरीणीय रोग- ऐसे रोग जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति मे नही फैलते है उन्हें असक्रामक रोग कहते है।

जैसे- रतौंधी और कैंसर ।

असंक्रामक रोगो के मुख्यता सात प्रकार के होते हैं:-

(a) क्षयकारक रोग – ये रोग महत्त्वपूर्ण अंगो के सही से न कार्य करने के कारण होते हैं, इन्हें क्षयकारक रोग कहते है जैसे- मिर्गी , हृदय रोग आदि ।

(b) अल्पता रोग – ये रोग पोषक तत्वो, विटामिन्स, खनिज तत्वों या हार्मोन्स की कमी के कारण होता है। उदाहरण – मधुमेह, बेरी-बेरी, धंघा आदि।

(c) प्रत्युजंक रोग – जब शरीर किसी बाहरी पदार्थों के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाता है तो प्रत्युजंक रोग (Allergies) हो जाता है।

(d) कैंसर – यह ऊतको की असमान वृद्धि के कारण होता है, कैंसर कहलाता है।

(e) मानसिक विकार – मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होने वाले रोगो को मानसिक विकार कहते हैं। उदाहरण अवसाद, सिरदर्द, पागलपन, स्मृति का कमजोर होना आदि ।

(f) वातावरणीय कारको के कारण उत्पन्न रोग – वातावरण मे उपस्थित पराबैगनी किरण, वायु प्रदूषको, ध्वनि आदि के कारण अनेक रोग उत्पन्न हो जाते है। जैसे- गर्मी के मौसम मे शरीर मे नमक की कमी।

(g) बुरी आदतों के कारण उत्पन्न रोग – ध्रुमपान, गुटखा- तम्बाकू आदि मादक पदार्थों के सेवन तथा असन्तुलित जीवनशैली के कारण भी अनेक रोग उत्पन्न होते है। उदाहरण – मोटापा, यकृत सम्बन्धी रोग, मानसिक विकार।

मानव मे संक्रामक रोग

मानव मे सक्रामक रोग विषाणु, जीवाणु, प्रोटोजोआ, कृमि और कवको द्वारा होता है।

रोगजनक (Pathogens) – ऐसे सूक्ष्मजीव जिनसे रोग होता है, उन्हें रोगजनक कहते है।

रोगो की प्रकृति के आधार पर मानव मे होने वाले रोगो को निम्न भागों में बाटा जा सकता है।

(1) विषाणुजनित मानव रोग

विभिन्न प्रकार के विषाणु मानव मे अनेक रोग उत्पन्न करते है।

जिनमे इन्फ्लुएन्जा, पीतज्वर, हिपेटाइटिस, खसरा, एड्स, हर्पीस, रेबीज, डेंगू, , पोलियो आदि प्रमुख हैं।

(i) इन्फ्लुएन्जा (Influenza) :-

रोगजनक → आर्थोमिक्सो विषाणु

संक्रमण → संक्रमित व्यक्ति के खाँसने, छीकने पर निकलने वाले बिन्दु कणो के द्वारा ।

लक्षण → ठण्डी लगना, बुखार आना, खाँसना, छीकना आदि।

रोकथाम एवं उपचार →

  • पेनिसिलीन और स्ट्रैप्टोपेनिसिलीन के injection इस रोग की प्रबलता को कम करते हैं।
  • रोगी के संक्रमित कपडो को उबलते पानी से साफ करना ।
  • इसके उपचार के लिए ऐमैन्टाडीन औषधि का प्रयोग करना |
  • बहुत तेज बुखार होने पर गीले कपडे की पट्टी का प्रयोग करना चाहिए ।

(ii) हिपेटाइटिस (Hepatitis)

मानव मे यकृत मे सूजन एक विशेष प्रकार के विषाणु हिपेटाइटिस द्वारा होती है।

हिपेटाइटिस पाँच प्रकार का होता है – हिपेटाइटिस- A, B, C, D, E

संक्रमण

  • हिपेटाइटिस A और E के विषाणु सामान्यता मुख से प्रवेश करते हैं
  • जबकि हिपेटाइटिस-B और D निम्न कारणों से होते हैं
    • दूषित रक्ताधान से ।
    • अपरा द्वारा संक्रमित माता से गर्भस्थ शिशु को ।
    • संक्रमित साथी के साथ लैंगिक सम्बन्ध बनाने से।
  • हिपेटाइटिस – C सामान्यता दूषित रुधिर चढ़ाने से फैलता है।

लक्षण – उल्टी आना, यकृत का बढ़ जाना, ज्वर आदि ।

हिपेटाइटिस के परीक्षण

  • SBT (सीरम बिलिरुबीन टेस्ट)
  • SGPT (सीरम ग्लूटामिक पाइरुविक ट्रांसएमीनेज)
  • ELISA (एमीनों लिंक्ड एमीनो सारविन्ट येसे)

रोकथाम एवं उपचार

  • ज्यादा कार्बोहाइड्रेट युक्त तथा कम प्रोटीन एवं वसा वाला भोजन करना चाहिए।
  • शारीरिक सम्बन्ध बनाते समय कण्डोम का उपयोग करना ।
  • इन्टरफेरॉन दवाओ का उपयोग करना |
  • हिपेटाइटिस का टीकाकरण करवाना ।

(iii) साधारण जुकाम (Common cold)

रोगजनक → राइनो विषाणु

संक्रमण → संक्रमित व्यक्ति के छीकने और खासने से निकलने वाले बिन्दुकणो से ।

→संक्रमित व्यक्ति के द्वारा उपयोग की गई वस्तुओ से |

लक्षण→ छीकना, खांसना, गले में दर्द होना, नाक का बन्द हो जाना, साँस लेने में दिक्कत आदि।

रोकथाम एवं उपचार

  • व्यक्तिगत साफ- सफाई पर ध्यान देना चाहिए ।
  • नियमित समय पर हाथ धोते रहना चाहिए।
  • Aspirin और Antihistamines औषधियों का उपयोग करना ।
  • Nasal spray का उपयोग करना चाहिए |

(iv) डेंगू बुखार (Dengue fever)

रोगजनक → डेंगू विषाणु ।

संक्रमण → यह रोग मच्छर की एक प्रजाति एडीज एजिप्टा द्वारा फैलता है।

लक्षण → तेज बुखार, गम्भीर सिर दर्द, नेत्रों के पीछे दर्द, भूख न लगना, जी मचलाना, पेशियो का दर्द आदि ।

डेंगू के परीक्षण (Tests of Dengue)

  • (a) एलिसा (Enzyme Linked Immuno sorbent Assay)
  • (b) हे- ऐसे (Hemagglutination Inhibition Assay)
  • (c) रिवर्स ट्रान्सक्रिप्टेज – पालीमरेज चेन रिक्शन (P.C.R)

रोकथाम एवं उपचार

  • डेंगू की रोकथाम का सबसे महत्वपूर्ण उपाय मच्छरो के प्रजनन की जगहो को समाप्त कर देना ।
  • अंधेरे तथा नमी वाले स्थानों पर कीटनाशको DDT का छिड़काव करना ।
  • इनके अतिरिक्त दरवाजों और खिडकियो मे जाली लगानी चाहिए जिससे मच्छर घर मे न आ सके ।
  • डेंगू बुखार की कोई विशेष प्रतिजैविक औषधि नहीं है। बुखार के समय पैरासीटामॉल ली जा सकती है।

(V) रेबीज या हाइड्रोफोबिया (Rabies or Hydrophobia)

रोगजनक → यह रोग रेहैब्डो विषाणु द्वारा होता है। रेबीज एक गम्भीर केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र सम्बन्धी रोग है।

संक्रमण → इस रोग का संक्रमण प्रायः कुते तथा बन्दर के काटने से होता है।

इन जानवरों के लार में विषाणु पाया जाता है, और लार द्वारा ही दूसरे व्यक्ति में संक्रमण होता है।

लक्षण → विषाणु के शरीर मे प्रवेश करते ही पहले शरीर मे उत्तेजना उत्पन्न होता है और बाद मे मस्तिष्क की कोशिकाओं एव मेरुरज्जु को नष्ट करता है।

सिर मे तीव्र दर्द होना रोग का विशेष लक्षण है। शरीर मे तीव्र ज्वर तथा गले एवं छाती की मांसपेशियों में ऐंठन होने लगती है, जिससे रोगी को घबराहट होती है।

रोकथाम एवं उपचार

  • रेबीज रोकने हेतु कुत्ते एवं बिल्ली के बच्चो का टीकाकरण करवाना चाहिए ।
  • संक्रिमित कुत्ते के काटने पर टीका लगवाना चाहिए। पहले ये टीके 14 होते थे, परन्तु वर्तमान में केवल 6 खुराक दी जाती है।

(vi) स्वाइन फ्लू (swine flu)

रोग जनक → यह विषाणुजनित संक्रामक रोग है, जो H1N1 विषाणु द्वारा होता है।

संक्रमण → स्वाइन फ्लू या श्वसन इन्फ्लुएन्जा श्वसन सम्बन्धी रोग है। इसका विषाणु सुअरो के श्वसन तंत्र को संक्रमित करता है इसके परिणाम सुअरो मे कफ और बलगम बनने लगता है।

कफ और बलगम के कण श्वसन के साथ मनुष्य के शरीर मे प्रवेश कर जाते है।

लक्षण → रोगी को 100°F या इससे भी अधिक बुखार रहता है। शरीर में कपकपी तथा सिरदर्द होने लगता है।

→ भूख कम हो जाती है। इस रोग का उद्धवन काल लगभग 1-4 दिनो का होता है।

रोकथाम एवं उपचार

  • टीकाकरण इस रोग के संक्रमण को रोकने या कम करने का सबसे अच्छा तरीका है।
  • इस रोग के उपचार के लिए दो औषधियाँ जेनामिविर् या रेलेन्जा तथा ओसेल्टा मिविर या टेमीफ्लू रोगी को दी जाती है।

(2) जीवाणु जनित मानव रोग

मानव मे आहार, जल, वायु तथा मिट्टी में उपस्थित विविध प्रकार के जीवाणुओं के संक्रमण से अनेक रोग होते हैं, जैसे निमोनिया, प्लेग, सुजाक, सुजाक, कुष्ठरोग, कुकुर खाँसी, रोहिणी, उपदंश, हैजा, क्षयरोग तथा धनुषतम्वन आदि रोग उत्पन्न हो सकते है।

(i) जल तथा आहार में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न रोग

जल तथा आहार में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा निम्न रोग उत्पन्न होते है ।

(a) आतज्वर या मोतीझरा (Typhoid)

रोगजनक → इस रोग का रोगजनक भोजन में उपस्थित जीवाणु साल्मोनेला टाइफी होता है, इसे मियादी बुखार कहते है।

संक्रमण → यह रोग संदूषित भोजन व जल एवं रोगी के मल-मूत्र एवं थूक द्वारा फैलता है। इस रोग को फैलाने मे मक्खियो की विशेष भूमिका रहती है।

ये मल- मूत्र से जीवाणुओं को अपने साथ लाकर, घरेलू खाद्य पदार्थों को संक्रमित कर देती है। ये जीवाणु भोजन के साथ आँत मे पहुँचकर आँत की भित्ति को क्षतिग्रस्त कर देते है।

लक्षण → रोगी के बदन तथा सिर में दर्द रहता है। 101°F तक बुखार भी रहता है, परन्तु नाडी की गति अपेक्षाकृत धीमी रहती है। लगभग तीन सप्ताह तक रहने वाले इस बुखार के पहले सप्ताह में बुखार व सिरदर्द होता है।

→ तथा दूसरे सप्ताह मे रोगी का बुखार असाधारण रूप से बढ़ता है, जिसके फलस्वरूप होठो व जीभ पर पपडी जम जाती है। गम्भीर अवस्था मे आँत मे से रुधिर भी निकल सकता है

रोकथाम एवं उपचार

  • मोतीझरा का परीक्षण विडाल टेस्ट से किया जाता है।
  • शिशुओं को TAB का टीका लगवा देना चाहिए ।
  • अपने आस- पास सफाई रखनी चाहिए।
  • जल को उबालकर पीना चाहिए।

(ii) वायुवाहित या वायु में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा रोग

(a) न्यूमोनिया (Pneumonia)

रोगजनक → यह रोग स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनी जीवाणु द्वारा होने वाला फेफडो का गम्भीर रोग है।

संक्रमण → यह सामान्यता इन्फ्लुएन्जा जैसे अन्य रोगो के संक्रमण के कारण उत्पन्न निम्न शारीरिक प्रतिरोधकता के कारण होता है। इस रोग का संक्रमण रोगी के थूक, बर्तन, खाद्य एवं जल को ग्रहण करने से फैलता है।

लक्षण → अचानक शरीर ठण्डा होना, छाती में दर्द, भूरे श्लेष्म थूक के साथ खाँसी, शरीर के तापमान में वृद्धि, जुकाम होना आदि ।

रोकथाम एवं उपचार

  • रोगी को ठण्ड से बचाना चाहिए।
  • खाने में तरल और सुपाच्य भोजन देना।
  • रोगी को पूर्ण विश्राम करना चाहिए।
  • पेनिसिलिन, एरिथ्रोमाइसिन आदि प्रतिजैविक का उपयोग ।

(b) काली खासी (Wooping cough)

रोगजनक – बोर्डीटेला पेस्टिस जीवाणु ।

संक्रमण – वायु के द्वारा ।

लक्षण – साँस लेने में तकलीफ।

रोकथाम एवं उपचार

  • खाँसते और छीकते समय मुँह और नाक को कपडे सें ढक लेना चाहिए ।
  • बच्चो को समय पर DPT का टीका लगवाना चाहिए।

(c) तपेदिक या क्षयरोग (Tuberculosis or TB)

रोगजनक → माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस जीवाणु ।

संक्रमण → संक्रमित व्यक्ति के थूकने, छीकने और खासने से।

संक्रमित व्यक्ति के भोजन और जल द्वारा ।

लक्षण → वजन में कमी, खाँसी, बुखार, सिर दर्द तथा रुधिर युक्त बलगम ।

रोकथाम एवं उपचार

  • घर के कमरे साफ सुथरे होने चाहिए।
  • रोगी को पौष्टिक आहार खिलाना चाहिए।
  • बच्चो को BGG टीका लगवाना चाहिए ।
  • डाक्टर की सलाह से रोगी को स्ट्रेप्टोमाइसिन औषधि का उपयोग करना चाहिए ।

(iii) मृदा मे उपस्थित जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न रोग

(a) धनुषतम्बा (Tetanus)

रोगजनक – वलास्टूिडियम टिटेनी जीवाणु ।

संक्रमण – यह जीवाणु प्राय: त्वचा मे लगे घावों के द्वारा शरीर में प्रवेश करते हैं।

लक्षण- इसमे सम्पूर्ण शरीर के जोड़ों में दर्द होता है। जिससे मासपेशियों में खिचाव उत्पन्न होता है अधिकतर दर्द जबड़े और गर्दन में होता है।

रोकथाम एवं उपचार

रोगी को तुरन्त लक्षण दिखते ही टिटेनस एन्टी टाक्सिन का इन्जेक्शन लगवाना चाहिए।

बच्चो को टिटेनस से बचाव के लिए DIPT या ट्रिपल एन्टीजन या ट्रिपल वैक्सीन प्रत्येक तीन माह के अन्तराल मे लगवानी चाहिए ।

(3) प्रोटोजोआ जनित मानव रोग

लगभग 30 से ज्यादा प्रोटोजोआ मानव में विभिन्न रोग उत्पन्न करते हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख रोगों का वर्णन यहाँ किया जा सकता है।

(i) अमीबीय पेचिश (Amoebic Dysentery)

रोगजनक → एण्टअमीबा हिस्टोलाइटिका प्रोटोजोआ ।

संक्रमण → घरेलू मक्खी द्वारा !

लक्षण → कब्ज, पेट में दर्द, पेट मे ऐठन, रुधिर के थक्के वाला मल, हल्का बुखार ।

गंभीर अवस्था मे पेट मे फोडे या अल्सर हो जाता है ।

रोकथाम एवं उपचार

  • इस रोग से बचने के लिए हरी सब्जियो को पोटैशियम पर मैगनेट मे एक घण्टे तक भिगोकर फिर उपयोग मे लाना चाहिए ।
  • उबाला हुआ जल तथा ढका हुआ भोजन खाना चाहिए।
  • एमेटिन नामक एक एल्कोलाइड से रोगी को कुछ समय के लिए आराम मिलता है।

(ii) मलेरिया (Malaria)

19वीं सदी तक लोग यह समझते थे कि मलेरिया रोग दलदली स्थानों से निकली गन्दी व नम हवा के कारण होता है। इसका मलेरिया ( गन्दगी, हवा) नाम इसी कारण रखा गया है।

रोगजनक → यह रोग एककोशिकीय प्रोटोजोअन परजीवी प्लाज्मोडियम द्वारा होता है।

संक्रमण → इस रोग का वाहक मादा एनाफिलीज मच्छर होता है।

लक्षण → मलेरिया मे बुखार चढ़ने से पहले रोगी की भूख खत्म हो जाती है। मुँह सूखने लगता है, सिर, पेशियो और जोड़ो में दर्द होता है तथा जी मचलाने लगता है।

रोकथाम एवं उपचार

  • अपने आस पास गन्दे पानी को इकट्ठा होने न दे।
  • मच्छरों से बचाव के लिए मच्छरदानी का प्रयोग करे ।
  • आस-पास के गड्ढे में पानी रुकने न दे।

प्लाज्मोडियम का जीवन चक्र

  • संक्रमित मादा ऐनोफैलीज मानव को काटती है तो प्लाज्मोडियम जीवाणुज (स्पोरोजाइट्स) के रूप में मानव शरीर मे घुस जाते है।
  • प्रारम्भ मे परजीवी यकृत में अपनी संख्या बढाते रहते है और फिर लाल रुधिर कणिकाओं पर आक्रमण करते हैं, जिससे लाल रक्त कणिकाएँ फट जाती है।
  • लाल रक्त कणिकाओं के फटने के साथ ही एक अविषालु (टॉक्सिक) पदार्थ हीमोजोइन निकलता है तो ठिठुरन और प्रत्येक तीन से चार दिन के अन्तराल से आने वाले उच्च आवर्ती ज्वर के लिए उत्तरदायी है।
  • जब मादा ऐनोफेलीज मच्छर किसी संक्रमित व्यक्ति को काटती है, तब परजीवी उसके शरीर में प्रवेश कर जाते है और उनका आगे का परिवर्धन वहाँ होता है।
  • ये परजीवी मच्छर मे बहु संख्यात्मक रूप से बढ़ते रहते हैं और जीवाणुज बन जाते है जो उसकी लार ग्रंथियों में जमा हो जाते है ।
  • जब यह मच्छर किसी मानव को काटता है तो जीवाणुज उसके शरीर में प्रवेश कर जाते है और इस प्रकार वर्णित घटना आरम्भ हो जाती है।
  • मलेरिया परजीवी को अपना जीवन चक्र पूरा करने के लिए, मनुष्य और मच्छर, दो परपोषियों की जरूरत पड़ती है। मादा ऐनाफेलीज रोगवाहक अर्थात रोग का संचरण करने वाली भी है।
  • इस रोग के उपचार के लिए एन्टिमनी यौगिक औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।

(4) हैल्मिन्थजनित रोग

मानव मे कुछ रोग जैसे- टीनिएसिस, एस्केरिएसिस, फाइलेरिएसिस आदि हैल्मिन्यीज कृमियों द्वारा होते है। इनमे से कुछ मुख्य रोग का वर्णन निम्न है।

(i) एस्कैरिएसिस (Ascariasis)

रोगजनक – आँतो का यह रोग एस्केरिस लुम्बीकाइडिस नामक निमैटोड द्वारा होता है। यह रोग छोटे बच्चो मे अधिक पाया जाता है।

संक्रमण – एस्केरिस के अण्डे रोगी की आँत में उपस्थित होते हैं तथा मल के साथ बाहर आ जाते हैं। ये मिट्टी, जल, पौधो व पालतू पशुओं के दूध को सदूषित कर देते हैं। ये संदूषित पदार्थ स्वस्थ मानव के सम्पर्क मे (भोजन व दूध पीने) आते है तो ये अण्डे स्वस्थ मनुष्य की आँत में पहुंच जाते हैं।

लक्षण – पेट दर्द, अनिद्रा, भूख कम लगना, घबराहट ऐंठन आदि । ,

रोकथाम एवं उपचार

  • भोजन करने से पूर्व हाथ साबुन से धोने चाहिए।
  • वैक्तिक और सामाजिक सफाई इस रोग की सर्वश्रेष्ठ रोकथाम है।

(ii) फीलपाव या हाथीपाँव (Filariasis or Elephantiasis)

रोगजनक – यह रोग फाइलेरिया कृमि वूचेरेरिया बैन्क्रोफ्टाई के द्वारा उत्पन्न होता है। यह लसीका वाहिकाओ और लसीका वाहिनियों में परजीवी के रूप में रहता है।

संक्रमण – मानव मे इस रोग का संक्रमण मादा क्यूलेक्स मच्छर के काटने से होता है।

लक्षण – शरीर मे झुझलाहट, लसीका वाहिनियाँ मे रुकावट, पैरो मे सूजन के कारण पैर हाथी के समान दिखाई पड़ते है, इसीलिए इसे हाथीपाव कहते है।

रोकथाम एवं उपचार

  • मच्छरो के काटने से बचाव करना चाहिए |
  • प्रौढ कृमियों के लिए आसैनिक औषधि का प्रयोग |
  • मच्छरों की रोकथाम हेतु उपाय करने चाहिए।

(5) कवक जनित रोग

(i) दाद रोग (Ring worm)

रोगजनक – माइक्रोस्पोरम, ट्राइकोफाइटान और एपिडर्मोफाइटान आदि वंश के कवक। त्वचा सम्बन्धी रोग है।

संक्रमण – संक्रमित व्यक्ति द्वारा उपयोग की गई वस्तुओं जैसे कपडा आदि ।

लक्षण – त्वचा पर दाने निकल आते है। जो बाद में लाल रंग के हो जाते हैं।

दाने Ring के रूप में पाये जाते हैं। त्वचा रूखी हो जाती है।

रोकथाम एवं उपचार

  • व्यक्तिगत साफ- सफाई पर ध्यान देना चाहिए ।
  • कवकरोधी क्रीम का उपयोग जैसे- Ring guard।

मानव मे सामान्य असंक्रामक रोग

मधुमेह, गठिया, हृदय रोग, कैंसर आदि मुख्य असंक्रामक रोग है।

(i) कैंसर (Cancer)

  • कोशिकाओं का असामान्य और अनियन्त्रित रूप से विभाजित होना ही कैंसर है।
  • कैंसर कोशिकाएँ अपने आस-पास के ऊतको पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर देती है।
  • ये कोशिकाएँ असामान्य वृद्धि करके धीरे-धीरे गाँठो का रूप धारण कर लेती है, जिसके कारण अर्बुद या नियोप्लाज्म का निर्माण होता है।

कैंसर के कारण

कैंसर विकसित करने के अनेक कारक होते है ये कारक भौतिक रासायनिक, विकिरण और जैविक हो सकते है।

लक्षण

  • मस्से या तिल मे अचानक वृद्धि होना |
  • चिरस्थायी अपच या निगलने में कठिनाई होना ।
  • अनावश्यक रुधिर स्त्राव होना |
  • स्तनो मे मोटाई व अचानक वृद्धि होना ।

रोकथाम एवं उपचार

  • प्रदूषण को कम करना चाहिए |
  • धूम्रपान नही करना चाहिए |
  • पान, तम्बाकू, गुटखा, शराब आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।

(ii) उपार्जित प्रतिरक्षा – न्यूनता संलक्षण (एड्स)

एड्स का अर्थ है प्रतिरक्षा की न्यूनता जो व्यक्ति के जीवन मे क्षति होती है। यह रोग HIV के कारण होता है जो शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र को क्षति पहुंचाता है।

एड्स के लक्षण

  • बार – बार सामान्य रोगो से ग्रसित हो जाना ।
  • रोगी को लगातार बुखार आना ।
  • दस्त लगना ।
  • धीरे- धीरे शरीर का वजन कम होना ।
  • शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता में कमी आना ।

HIV का संचरण → HIV का संचरण संक्रमित माता से उसके गर्भस्थ शिशु को होता है।

संक्रमित व्यक्ति से असुरक्षित यौन सम्बन्ध बनाने से ।

HIV संक्रमण की पहचान –

  • ELISA (Enzyme Linked Immuno Sorbent Assay)
  • PCR (Polymerase chain Reaction)

HIV की रोकथाम एवं उपचार

  • कण्डोम के उपयोग से सुरक्षित यौन सम्बन्ध द्वारा ।
  • रक्ताधान से पहले HIV का परीक्षण करके ।
  • AIDS के बारे में जागरूकता फैलाकर ।

ड्रग और एल्कोहल कुप्रयोग (नशीली दवाओ और शराब का दुरुपयोग )

वर्तमान में युवाओं मे शराब व ड्रग का प्रचलन बढ़ रहा है, जो कि हमारे लिए चिन्ता का विषय है। साधारणतः ओपिआइड्स, कैनेबिनाइड्स और कोका एल्केलाइड्स का उपयोग युवाओ द्वारा किया जा रहा है। इनका साधारण परिचय इस प्रकार है।

ओपिआइड्स (obioids) –

ये अवसादक ड्रग होती है जो हमारे शरीर की क्रियाओ को धीमा कर देती है। ये हमारे पाचन से होकर केन्द्रिय तंत्रिका तंत्र में उपस्थित ओपि आइइस ग्राहियों से मिलकर उनकी क्रियाओ को धीमा करते हैं। मार्फिन शल्य क्रिया में उपयोगी होता है। ये दर्द निवारक की तरह कार्य करते हैं।

प्राप्ति पादप

  • ये अफीम, वनस्पतिक नाम पैपेवर सोम्निफेरस के लेटेक्स (दूध) के निष्कर्षण से प्राप्त होते है।
  • जब इस पौधे मे पुष्पी कली बन जाती है तो उसमे हल्का चीरा लगाकर लेटेक्स को निकाला जाता है, ये मार्फिन होता है।
  • बनाने की प्रक्रिया:- इसे मार्फिन के एसीटिलीकरण से प्राप्त किया जाता है जिससे यह रासायनिक रूप से डाइएसिटिल मार्फिन कहलाता है।
  • ये सफेद पाउडर के रूप में होता है यह गंधहीन, तीखा, रवेदार यौगिक है इसे सामान्यतः स्मैक या हीरोइन के नाम से जाना जाता है इसे नाक द्वारा साँस लेकर अन्दर खींचा जाता है या इन्जैक्शन के प्रयोग से लिया जाता है।

कैनाबिनॉइड्स (Cannabinoids)

ये भी अवसादक होते हैं जो हमारे मस्तिष्क में उपस्थित कैनाबिनॉइड्स ग्राहियों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। ये प्राय: रक्त परिवहन तंत्र को प्रभावित करते हैं।

पादप प्राप्ति – ये भांग वनस्पतिक नाम कैनबिस सेटाइवा पौधे के पुष्पक्रम, वर्ण व पौधे की राल से प्राप्त किए जाते हैं।

बनाने की प्रक्रिया – चूकि ये कुछ रासायनिक यौगिको का समूह है। इसमे कैनबिस सेटाइवा के पुष्पक्रम, वर्ण, राल व पुष्प के शीर्ष भाग को अलग-अलग मात्रा में मिलाकर नये संयोजन बनाये जाते है जिससे (मैरिजुआना, चरस, गांजा व भांग) के काम आते है।

आमतौर पर इन्हें पर इन्हें धुम्रपान या मुँह द्वारा चबाकर शरीर के अन्दर लिया जाता है। कुछ खिलाड़ी कैनाबिनाइइस का दुरुपयोग करते हैं

कोका ऐल्कोलाइड्स (Coca Alkaloids)-

इसे कोकिन कोका के नाम से भी जाना जाता है । यह एक उद्दीपक है जो केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को उद्दीपित कर कार्य करता है। यह तंत्रिका प्रेषक या न्यूरोट्रान्समीटर डोपेमिन के संवहन को रोक देता है। इसे सांस के साथ खीचा जाता है।

प्राप्ति पादप:- इसे एरिथ्रोजाइलम कोका नामक पौधे से प्राप्त किया जाता है जो की मूलत: दक्षिण अमेरिका का पौधा है।

प्रभाव:- ये शरीर मे उत्तेजना, सुखायास और स्फूर्ति पैदा करता है, परन्तु अधिक मात्रा लेने पर विभ्रम हो जाता है।

धतूरा व बैलोडोना

धतूरा स्ट्रेमोनियम व एट्रोपा बैलोडोना नामक पौधो से प्राप्त होता है।

धतूरे के बीज व एट्रोपा बैलोडोना का सम्पूर्ण भाग नशीले पदार्थ के रूप में काम आते हैं। ये विभ्रम उत्पन्न करते हैं। इसके अधिक सेवन से मृत्यु भी हो जाती है।

निकोटीन (Nicatin):-

तम्बाकू का प्रयोग मनुष्य पिछले 400 से भी अधिक वर्षों से करता आ रहा है । इसे – वह बीडी, सिगरेट, हुक्के आदि के रूप में, इसके पत्ते को चबाकर, या अच्छी तरह पीसकर नाक द्वारा सूंघा जाता है।

तम्बाकू मे निकोटिन होता है जो एड्रिनल ग्रन्थि को उद्दीपित करता है, जिससे यह ग्रन्थि एड्रिनलीन व नॉर-एड्रिनलीन हार्मोन का स्त्रावण बढा देती है, जिससे उत्तेजना, रक्ताचाप, श्वसन दर व हृदय गति बढ़ जाती है।

किशोरावस्था और ड्रग | ऐल्कोहल कुप्रयोग

बालक की 12-18 वर्ष की उम्र को किशोरावस्था माना जाता है। ये वो अवस्था है जो बचपन को युवा अवस्था को जोड़ती है। इस आवस्था में बच्चे में बहुत से शारीरिक, मानसिक व व्यवहारात्मक होते हैं। ऐसे में बालक कभी- कभी अनजाने, तो कभी-कभी आकर्षण वश ड्रग या एल्कोहल के प्रति आकर्षित हो जाते हैं और इनके अधिक प्रयोग से बच्चे इनके आदी हो जाते हैं।

किशोरो की प्राकृतिक जिज्ञासा, प्रतियोगिता की अंधी दौड़ एवं नशे को प्रगति का सूचक मानना आदि ऐसे कारण है जिनकी वजह से किशोर ड्रग व एल्कोहल से आकर्षित होता है।

टेलीविजन व सिनेमा मे हीरो को शराब/सिगरेट पीकर बड़े- बड़े काम करते देखना, लड़कियों को प्रभावित करना आदि ऐसे चीजें ही किशोर को प्रभावित करती है।

व्यसन और निर्भरता

व्यसन नशा लेने की वह स्थिति होती है जिसमे बालक/मनुष्य नशे के प्रति मनोवैज्ञानिक रूप से आशक्त हो जाता है और उसकी जरूरत नहीं होते हुए भी नशे की आवश्यकता महसूस करता है और अपने आप को अधूरा महसूस करता है।

यह व्यक्ति के मन की वह स्थिति है जब शरीर को नशे की आवश्यकता नहीं परन्तु मन उसके प्रति आशक्त हो जाता है और उसके बिना रह नहीं पाता है, जिससे अनेक लक्षण दिखते है:-

दुर्बलता, असहायपन बेचैनी होना, तेज पसीना आना, शरीर मे कम्पन्न होना ।

ड्रग/एल्कोहल कुप्रयोग के प्रभाव

नशे के तात्कालिक व दुरगामी प्रभाव होते हैं जैसे

  • नशे के लिये चोरी करना।
  • घर क़ो आर्थिक रूप से हानि पहुँचाना।
  • अनियमित व अनपेक्षित व्यवहार करना ।
  • हिंसा बर्बरता ।

रोकथाम और नियंत्रण

एल्कोहल हो या ड्रग व्यक्ति किशोरावस्था में इनके प्रति अधिक आकर्षित होता है और ऐसी आदतों से हमे हमारे किशोरो और युवाओं को बचाना होगा | हम निम्न उपाय कर सकते है:-

  • आवश्यक समकक्षी दबाव से बचे ।
  • माता- पिता और समकक्षियों से सहायता लेना।
  • संकट के संकेतों को देखना ।
  • व्यावसायिक और चिकित्सा सहायता लेना ।

प्रतिरक्षा (Immunity)

प्रतिरक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है “शरीर की वह क्षमता जिसके द्वारा शरीर बाहरी पदार्थों की पहचान कर लेता है व उन्हें अपने ऊतको को बिना क्षति पहुंचाये निष्प्रभावित, निष्काषित अथवा उपापचयित कर देता है।”

प्रतिरक्षा दो प्रकार की होती है।

(1) सहज प्रतिरक्षा (2) उपार्जित प्रतिरक्षा

(1) सहज या अविशिष्ट प्रतिरक्षा:-

माता – पिता से संन्तानों मे प्राप्त होने वाली प्रतिरक्षा को सहज प्रतिरक्षा कहते है |

सहज प्रतिरक्षा में चार प्रकार के रोध होते हैं, –

(i) शारीरिक रोध- हमारे शरीर पर त्वचा मुख्य रोध है, जो सूक्ष्मजीवों के प्रवेश को रोकता है। श्वसन जठरांत्र और जननमूत्र पथ को आस्तरित करने वाली एपिथीलियम का श्लेष्मा आलेप भी शरीर में घुसने वाले रोगाणुओं को रोकने में सहायता करता है।

(ii) कायिकीय रोध-आमाशय मे अम्ल, मुँह मे लार, आखो के आसूँ, ये सभी रोगाणीय वृद्धि को रोकते हैं।

(iii) कोशिकीय रोध- हमारे शरीर के रक्त मे बहुरूप केन्द्रक श्वेताणु उदासीनरंजी जैसे कुछ प्रकार के श्वेताणु और एककेन्द्रकाणु तथा प्राकृतिक मारक लिंफोसाइट्स प्रकार एवं ऊतको मे वृहत भक्षकाणु रोगाणुओं का भक्षण एवं नष्ट करते हैं।

(iv) साइटोकाइन रोध- विषाणु संक्रमित कोशिकाएँ इंटरफेरान नामक प्रोटीनो का स्त्रावण करती है, जो असंक्रमित कोशिकाओं को और आगे विषाणु संक्रमण से बचाती है।

(2) उपार्जित प्रतिरक्षा –

जन्म के बाद प्राप्त होने वाली प्रतिरक्षा को उपार्जित प्रतिरक्षा कहते है।

यह प्रतिरक्षा प्रतिजन विशिष्ट है। इसका मुख्य गुण स्मृति है। जब शरीर में रोगकारक प्रथम बार प्रवेश करता है तब प्रतिरक्षा तंत्र प्रतिरक्षी बनाकर जो प्रतिक्रिया दर्शाता है उसे प्राथमिक अनुक्रिया कहते है। इस अनुक्रिया के दौरान स्मृति कोशिकाएँ बनती है। अतः जब वही रोगकारक शरीर मे पुनः प्रवेश करता है तो प्रतिरक्षा तंत्र पूर्व निर्मित स्मृति कोशिकाओं के सहयोग से अधिक मात्रा में प्रतिरक्षी निर्मित कर उच्च तीव्रता की अनुक्रिया करता है जिसे द्वितीयक प्रतिरक्षा अनुक्रिया कहते है।

प्राथमिक और द्वितीयक प्रतिरक्षा अनुक्रियाएँ हमारे शरीर के रक्त में मौजूद दो विशेष प्रकार के लसीकाणुओं द्वारा होती है। ये है बी-लसीकाणु और टी- लसीकाणु ।

(1) सक्रिय प्रतिरक्षा (Active Immunity)

जब रोगकारक अथवा एन्टीजन के प्रवेश करने पर शरीर मे प्रतिरक्षी बनते है इस प्रकार की प्रतिरक्षा सक्रिय प्रतिरक्षा कहलाती है ये प्रतिरक्षी धीमी होती है तथा प्रभावी होने में समय लेती है |

प्राकृतिक संक्रमण से संक्रामक जीव का शरीर में प्रवेश करने पर प्राकृतिक सक्रिय प्रतिरक्षा प्राप्त होती है तथा टीकाकरण द्वारा रोगाणु अथवा एन्टीजन को जान बूझकर शरीर में प्रवेश कराने पर कृत्रिम प्रतिरक्षा प्राप्त होती है।

(2) निष्क्रिय प्रतिरक्षा (Passive Immunity)

जब शरीर की रक्षा के लिए बने बनाए प्रतिरक्षी को शरीर मे प्रवेश कराया जाता है तो निष्क्रिय प्रतिरक्षा प्राप्त होती है। यह प्रतिरक्षा शीघ्रता से प्रयत्नशील हो जाती है लेकिन कम अवधि तक ही प्रभावकारी होती है।

गर्भावस्था के दौरान भ्रूण को माता से प्लेसेन्टा द्वारा IgG मिलता है तथा दुग्धस्त्रवण के दौरान कोलेस्ट्रम से माता भ्रूण को IgA उपलब्ध कराती है जो कि प्राकृतिक निष्क्रिय प्रतिरक्षा के उदाहरण है।

सांप के काटे जाने अथवा घातक रोगो जैसे टिटेनस, रेबीज, डिफ़्थीरिया के उपचार हेतु दिया जाने वाला एन्टीविनम/ एन्टीटॉक्सिन कृत्रिम निष्क्रिय प्रतिरक्षा उत्पन्न करता है ।

शरीर में प्रतिरक्षा तन्त्र (Immune system)

रोग प्रतिरोधक क्षमता से सम्बन्धित समस्त संरचनाओ को सामूहिक रूप से प्रतिरक्षा तन्त्र कहते हैं।

इसके अन्तर्गत लसीकाभ अंग, ऊतक, कोशिकाएं एवं प्रतिरक्षी आदि सम्मिलित है।

लसीकाभ अंग – लसीकाणुओ की उत्पत्ति और/या परिपक्वन तथा प्रचुरोक्रवन से सम्बन्धित अंगो को लसीकाभ अंग कहते है।

प्राथमिक लसिकाभ अंग:- वे अंग जहाँ अपरिपक्व लसीकाणु प्रतिजन के प्रति संवेदनशील लसिकाणु में विभेदित हो जाते हैं। उन्हें प्राथमिक लसिकाभ अंग कहते है।

उदाहरण – अस्थि मज्जा एवं थाइमस

द्वितीयक लसिकाभ अंग:- वे अंग जहां लसिकाणुओ की प्रतिजन के साथ पारस्परिक क्रिया होती है तथा लसिकाणुओं की संख्या में वृद्धि व सक्रियण होता है, उन्हें द्वितीयक लसीकाभ अंग कहते हैं। उदाहरण – प्लीहा, लसीका ग्रन्थियां, टांसिल, पेयर पेचेण, एवं परिशेषिका

अस्थिमज्जा तथा थाइमस में टी० लसिकाणुओं का परिवर्धन एवं परिपक्वन होता है ।

टीकाकरण तथा प्रतिरक्षण (Vaccination And Immurisation)

किसी असक्रिय, अनुग्र या मृत सूक्ष्मजीव या उससे उत्पन्न विष की अति सूक्ष्म मात्रा को शरीर में प्रवेश कराने की क्रिया टीकाकरण कहलाती है तथा जो पदार्थ शरीर में प्रवेश कराया जाता है उसे टीका (Vaccine) कहते है।

टीके में मृत कमजोर या संवर्धित प्रतिजन (रोगकारक) होते है। जब किसी व्यक्ति को टीका लगाया जाता है तो ये निष्क्रिय प्रतिजन उस व्यक्ति के शरीर मे प्रतिरक्षियो के निर्माण को प्रेरित करते हैं। ये प्रतिरक्षी लम्बे समय तक (6 माह से जीवन पर्यत) शरीर को संक्रमण से बचाते है।

टीकाकरण का सिद्धांत प्रतिरक्षातन्त्र के स्मृति के गुण पर आधारित है। टीकाकरण से स्मृति- बी व टी० कोशिकाएं भी बनती है जो रोगजनक को जल्दी पहचानकर प्रतिरक्षियो के उत्पादन द्वारा रोगजनको को यत्म करने में मदद करती है। इस प्रकार का प्रतिरक्षण सक्रिय प्रतिरक्षण के अन्तर्गत आता है।

कई बार घातक रोगजनको के संक्रमण से रक्षा हेतु तुरन्त प्रतिरक्षियो की आवश्यकता होती है। इसके लिए टीके द्वारा सीधे ही प्रतिरक्षी या प्रतिआविष शरीर में प्रवेश कराया जाता है।

जैसे – जहरीले सांप के काटने पर या टिटनेस मे जो टीके लगाये जाते हैं उनमें पहले से निर्मित प्रतिरक्षी होते है। इस प्रकार प्रति रक्षीकरण को निष्क्रिय प्रतिरक्षीकरण कहते है। टीके लगवाकर रोग प्रतिरक्षा प्राप्त करना टीकाकरण कहलाता है।

एलर्जी (Allergies)

किसी व्यक्ति द्वारा किन्ही बाह्य कणो या पदार्थ के सम्पर्क में आने पर प्रकट की जाने वाली अति संवेदनशील ( आवश्यकता से अधिक) को ही एलर्जी कहते हैं, एलर्जी शब्द का उपयोग सर्वप्रथम 1905 में क्लीमेन्स प्रहर फॉन पिरके ने किया थ| |

एलर्जी कारक (Allergents)

वे कारक जिनके कारण कोई व्यक्ति अति संवेदनशीलता प्रकट करता है उन्हें एलर्जी कारक कहते है।

जैसे – धूल के कण, ठण्ड, गर्मी, फर, पंख, इत्र की खुशबू, कपड़ा, परागकण, माइट, साबुन, कोई विशिष्ट हवा, सूर्य का प्रकाश, दुर्गन्ध इत्यादि ।

लक्षण – एलर्जी का कारण प्राय: अलग- अलग होते है परन्तु सामान्यतः इसमें त्वचा, म्यूकस झिल्लियां व श्वसन तंत्र अधिक प्रभावित होता है। छीकना, खांसना, नाक बहना, सांस लेने में परेशानी इत्यादि।

क्रियाविधि – सर्वप्रथम एलर्जी कारक एक प्रतिजन की तरह कार्य करता है और प्रतिरक्षी का निर्माण प्रारम्भ करता है ये प्रतिरक्षी संयोजी ऊतक की मास्ट कोशिकाओ व बेसोफिल से जुड़ जाते हैं। इन प्रतिरक्षी में IgE इम्यूनोग्लोबिन पाया जाता है।

उपचार – प्रतिहिस्टैमिन, एड्रीनेलिन और स्टीराइगे जैसी औषधियो के प्रयोग से एलर्जी के लक्षण घट जाते हैं लेकिन आधुनिक जीवन शैली के फलस्वरूप लोगों में प्रतिरक्षा घटी है और एलर्जनों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ी है।

Class 12 Biology Chapter 8 Notes in Hindi PDF Download

Chapter 1 जीवो मे जन
Chapter 2 पुष्पी पौधो में लैंगिक जनन
Chapter 3 मानव जनन
Chapter 4 जनन स्वास्थ्य
Chapter 5 वंशागति एवं विविधता के सिद्धांत
Chapter 6 वंशागति का आणविक आधार
Chapter 7 विकास

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