Class 12 Biology Chapter 12 Notes in Hindi जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके प्रयोग

यहाँ हमने Class 12 Biology Chapter 12 Notes in Hindi दिये है। Class 12 Biology Chapter 12 Notes in Hindi आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।

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जीन स्थानान्तरण करके जैव प्रौद्योगिकी द्वारा इच्छानुसार लक्षणो वाले जीव (सूक्ष्मजीव, पौधे, जन्तु) पैदा किये जाते हैं।

औद्योगिक स्तर पर जैव प्रौद्योगिकी के तीन विवेचनात्मक अनुसंधान क्षेत्र होते है-

  • 1.जैव उत्प्रेरक (एन्जाइम) – उन्नत जीवो जैसे- सूक्ष्मजीवो या एन्जाइम का उपयोग करके सर्वश्रेष्ठ उत्प्रेरक का निर्माण किया जाता है।
  • 2.अनुकूलतम दशाये – जैव – प्रौद्योगिकी द्वारा एन्जाइम के कार्य के लिए सर्वोत्तम परिस्थितियाँ बनाना जैसे उचित PH, अनूकूलतम ताप आदि।
  • 3.अद्योगामी प्रक्रियाये – इस क्रिया में उत्पादो प्रोटीन/ कार्बनिक यौगिको की शुद्धता व दोबारा प्राप्त करके उपयोग किया जाता है।

कृषि मे जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग

जैव प्रौद्योगिकी द्वारा कृषि मे खाद्य उत्पादन के वृद्धि के लिए निम्न विकल्प प्रस्तुत है –

1.कृषि रसायन आधारित कृषि :- हरित क्रान्ति द्वारा उत्पादन में तीन गुना वृद्धि होने के बाद भी पर्याप्त उत्पादन मुश्किल है। पीडकनाशी व उर्वरक का प्रयोग वृद्धि उत्पन्न करने के लिए करते है, जो कि अधिक महँगे होते हैं। ये कृषि रसायन जल, मृदा व भोज्य पदार्थो को अधिक प्रदूषित करते है इसलिए कार्बनिक कृषि पर ज्यादा बल दिया जा रहा है।

2.कार्बन कृषि :- फसल बढ़ाने के लिए कार्बनिक कृषि मे जैव उर्वरक, जैव नियंत्रण व जैव पीड़क नाशी का प्रयोग किया जाता है, आनुवाशिक रूप से फसली पौधो को विकसित करके भोजन की मात्रा को बढ़ाया जा रहा है।

3. आनुवांशिक रूपांतरित फसल आधारित कृषि :- ऐसे जीव (पादप, जन्तु, सूक्ष्मजीव) जो जीन स्थानान्तरण के द्वारा परिवर्तित किए गए हो उसे आनुवंशिक रूपान्तरित जीव कहते हैं जो जीवो मे जीन प्रवेश कराया जाता है, उसे ट्रान्सजीन कहते है। आनुवांशिक रुपान्तरित फसले कहते है।

इन GMO पौधों का प्रयोग अनेक प्रकार से लाभदायक होता है –

  • ये पौधे कम समय में उत्पन्न हो जाते है।
  • अजैव प्रतिबलो (ठंडा, सूखा, लवण, ताप) के प्रति अधिक सहिष्णु फसलो का निर्माण |
  • रासायनिक उर्वरक व पीड़कनाशको की कम आवश्यकता होती है।
  • खनिज उपयोग मे पौधो द्वारा क्षमता में वृद्धि होती है।
  • ये अनाज नुकसान कम करने में सहायक होते हैं।
  • खाद्य पदार्थो मे पोषक स्तरो में वृद्धि।

जैव प्रौद्योगिकी द्वारा कृषि मे ट्रान्सजेनिक पादपो का निर्माण किया जाता है :-

1. कीटरोधी चादप:- क्राई प्रोटीन का निर्माण मृदा जीवाणु बेसिलस यूरिन्जिएन्सिस मे उपस्थित जीन द्वारा होता है, cry प्रोटीन कुछ कीटो के लिए नुकसानदायक भी होते हैं। To1 प्लाज्मिड की मदद से cry प्रोटीन के जीन को तम्बाकू, टमाटर, कपास आदि मे प्रवेश करा कर कीटो के प्रति पादपो को प्रतिरोधी बनाया गया है। कपास मे इस प्रकार का जीन स्थानान्तरण अधिक प्रभावी व उपयोगी होता है। जिसे Bt कपास या किलर कॉटन भी कहा जाता है।

Bt कॉटन:- साधारण कॉटन पर विशेष प्रकार के कीटो जैसे- कलिका कीड़ा, सैनिक कीड़ा, कैलियोपोप्टेरान ये कॉटन पादप को नुकसान पहुंचाता है यह तने, पुष्प कलिकाओ व कॉटन बाल के ऊपरी भाग मे छेद करके घुस जाती है और आक्रमण करती है, कॉटन मे छिद्र हो जाता है। यह पकने से पहले खुलता है तथा खराब व मुलायम होता है। 0-60% तक फसल के उत्पादन मे कमी हो जाती है इसे बचाने के लिए कीटनाशक का स्प्रे अधिक महँगा होता है। कॉटन मे दो क्राई जीन – CryIAb व CryII Ab को भेजा जाता है। जो आनुवांशिक रूप से विकसित कॉटन फसल को Bt कॉटन कहते हैं क्योंकि यह कॉटन बालवर्म के विपरीत Bt टॉक्सिन जीन रखती है।

2. पीड़क प्रतिरोधी पादप :- विभिन्न निमेटोड मानव जन्तु व पादपो पर परजीवी के रूप मे होते हैं। सूत्रकृमि (निमेटोड) मेली इडोगाइन इनकोगनीशिया तम्बाकू, बैंगन, टमाटर आदि पौधो के मूल मे संक्रामण उनकी पैदावार मे कमी ला देते हैं। एग्रोबैक्टीरियम जीवाणु के T-DNA का उपयोग इन संक्रमण को रोकने के लिए किया जाता है।

आर एन ए अन्तरक्षेप:- कोशिकीय सुरक्षा की एक विधि सभी प्रोकैरियोटिक जीवों में होती है। इस विधि मे विशिष्ट दूत आरएनए, पूरक द्विसूत्री RNA से वर्जित होने के बाद अक्रिय हो जाते हैं, जिसके बाद इत RNA के स्थानान्तरण को रोकने के लिए का कार्य करता है। एग्रोबैग्टीरियम के T – DNA की मदद से सूत्रकृमि के विशिष्ट दूत RNA अक्रिय हो जाते है। इसके बाद परजीवी परपोष मे विशिष्ट अंतरक्षेपी RNA की उपस्थिति के कारण परजीवी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार से परजीवी पौधे अपने आप को सुरक्षित रखते है।

3. हिरू डिन :- यह एक विशेष प्रकार का प्रोटीन है, जो रक्त के धक्का निर्माण को रोकता है। इस प्रोटीन को औषधि के रूप मे ट्रांसजैनिक पादपो से प्राप्त किया जाता है। ब्रेसिका नेपस मे हिरुडिन के संश्लेषित जीन को स्थानान्तरित किया जाता है। हिरुडिन प्रोटीन इस पादप के बीजो मे संश्लेषित व संचित होता है, जिसको अलग व शुद्धिकरण करके हिरुडिन को औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है।

4. वाइरस प्रतिरोधी पादप :- बढ़ी संख्या मे फसली पादप वाइरस रोगो से पीडित रहते है। जिसके कारण वायरस प्रतिरोधी पादप जैव तकनीक द्वारा बनाये गये है। इस तकनीक मे टमाटर व तम्बाकू पादपो को वायरस प्रतिरोधी बनाया गया है। इसके अन्तर्गत इन पादपो मे TMV (Tabbaco masaio virus), PSTV (Potato spindle tuber virus) आदि वायरस के केवल आवरण प्रोटीन जीन को प्रवेश करा दिया जाता है। इन ट्रान्सजैनिक पादप से आवरण प्रोटीन के कारण बिना किसी बाह्य संक्रमण के भी इन्टर फेरान उत्पन्न होने लगते है। ये इन्टरफेशन इन ट्रान्सजैनिक पौधो को भावी वायरस संक्रमण के प्रति प्रतिरोधी बनाये रखता है।

5.जीवाणु प्रतिरोधी पादप :-इस तकनीक मे ऐसे पादपो को उत्पन्न किया गया है जो रोग कारी जीवाणु के प्रति प्रतिरोध होते है। उदाहरण तम्बाकू का ट्रान्सजेनिक पादप | जिसमे ऐसीटिल ट्रांसफेरेज एन्जाइम को कोडित करने वाले जीन का स्थानान्तरण किया गया है। यह एन्जाइम स्यूडोमोनास सिंरिगी जीवाणु द्वारा होने वाला रोग ‘वन्य भाग’ के प्रति तम्बाकू को प्रतिरोधी बनाये रखने का कार्य करता है।

6. कवक प्रतिरोधी पादप :- जीन स्थानान्तरण करा के पादपों में अनेक प्रतिरोधी बनाया जा सकता है। जो निम्न है :

रोगकारकरोगप्रतिरोधी जीनट्रान्सजैनिक पादप
अल्टर्नेरिया लोंगीपेसब्राउन स्पाटकाइटिनेज जीनतम्बाकू
राइजोक्टोनिया सोलेनाईरूट रॉटकाइटिनेज जीनतम्बाकू
फाइटोप्थोरा इन्फेस्टेन्सलेट ब्लाइटआस्मोटिन जीनआलू

7. सुपर पोटेटो का निर्माण :- सुपर पोटेटो का निर्माण दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशीष दन्ता ने रामदाने का प्रोटीन बनाने वाला जीन आलू में डालकर किया था। अधिक पैदावार वाला यह जीन पोटेटो की विभिन्न रोगो से सुरक्षा प्रदान करता है और यह ज्यादा प्रोटीन युक्त भी होता है।

8.गोल्डेन राइस का निर्माण चावल :- चावल की गोल्डेन राइस किस्म को स्विस के जैव अभियन्ता इग्नो पैट्रीकस ने विकसित की थी। इसमे इन्होने डैफोडिल नामक पौधे से B कैरोटीन उत्पन्न होने वाला जीन प्रवेश करवाया जिससे कारण इस चावल मे विटामिन A का पता चला।

चिकित्सा मे जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग

प्रौद्योगिकी का उपयोग मानव स्वास्थ्य के रक्षा के लिए दो प्रकार के प्रयास किये जाते हैं। प्रथम रोगों का उपचार करके, द्वितीय रोग उत्पन्न करने वाले रोगाणुओं की रोकथाम करके । चिकित्सा के क्षेत्र में पिछले अनेक वर्षों से प्रतिजैविक औषधियाँ, एन्जाइम, विटामिन्स एवं हार्मोन्स का प्रयोग होता आ रहा है। किन्तु इन्टफेशन, वृद्धि हामोन्स, इन्सुलिन आदि उत्पादों को विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवों से प्राप्त किया है, जो अधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता है। जीन थेरेपी व जीन क्लोनिंग के उपयोग से कैंसर व विभिन्न आनुवंशिक रोगों के उपचार मे नई क्रान्ति आयी है वर्तमानकाल मे लगभग 30 पुनर्योगज औषधियाँ विश्वभर में मानव के प्रयोग के लिए बनायी गई है। जिसमें से 12 औषधियाँ भारत में मिलती है।

आनुवंशिक निर्मित इन्सुलिन

  • इन्सुलिन की खोज सर्वप्रथम एडवर्ड शार्पे- शेफर ने 1916 में की थी।
  • इन्सुलिन 51 अमीनो अम्ल युक्त प्रोटीन हार्मोन होता है, अग्नाशय की लेंगर हेन्स दीपसमूह कोशिकाओ से प्राप्त होता है।
  • इसकी कमी के कारण मधुमेह रोग उत्पन्न होता है। शुरुआत मे मधुमेह रोग के इलाज के लिए इन्सुलिन गाय व सुअर से प्राप्त की जाती है।
  • 100 gm इन्सुलिन प्राप्त करने हेतु 800 – 1000 Kg अग्नाशय की जरूरत होती थी।
  • जानवरो से प्राप्त हुई इन्सुलिन से कुछ रोगियो मे एलर्जी उत्पन्न होने लगती है। परन्तु इसे जैव तकनीकी द्वारा आसानी से ज्यादा मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है।
  • डेनमार्क ने 1980 मे पहली बार स्वाईस इन्सुलिन को 90% शुद्ध मानव इन्सुलिन मे रुपान्तरित किया।
  • एली लिली ने 1983 में दो DNA अनुक्रमो को तैयार किया जो मानव इन्सुलिन की संख्या ‘ए’ तथा ‘बी’ के जैसे थी।
  • जीवाणु ई. कोलाई के प्लाज्मिड में इन श्रृंखलाओ को प्रवेश कराकर इन्सुलिन श्रृंखलाओं का निर्माण किया।
  • इन अलग- अलग बनी श्रृंखलाओ को निकालकर डाई सल्फाइड संघ बनाकर आपस में जोड़कर मानव इन्सुलिन बनाया गया ।
  • ई. कोलाई से बनी जैव तकनीक द्वारा इन्सुलिन को समूलिन ह्मुलीन नाम से जाना गया । ये इन्सुलिन आँख के रेटिना व वृक्को को कम नुकसान पहुंचाता है।

जीन चिकित्सा (Gune Therophy )

  • जीन उपचार आनुवांशिक अभियांत्रिकी की एक तकनीक होती है जिसके माध्यम से रोगी के शरीर के विशेष अंग की कोशिकाओं मे नया जीन भेजकर उपचार किया जाता है।
  • इस तकनीक के अन्तर्गत शरीर से दोषपूर्ण जीन हटाकर नया जीन प्रवेश कराया जाता है।
  • इसी जीन के द्वारा ही रोगी मे महत्वपूर्ण तत्वो का निर्माण होता है।
  • अगर किसी भी जीन मे थोड़ी-सी विकृति आ जाती है तो प्रोटीन मे असमनताएँ दिखने लगती है। प्रोटीन मे बदलाव के कारण मनुष्य के लक्षण समष्टि गुण परिवर्तित हो जाते हैं।
  • विकृत जीन को हटाकर नया जीन को पुनर्योजी DNA तकनीक द्वारा जोड़ा जा सकता है। इसी घटना को जीन चिकित्सा व जीन प्रतिस्थापन चिकित्सा कहते हैं।
  • इस तकनीक द्वारा अन्य घातक रोगो का उपचार किया जा सकता है। जैसे – सिकल सैल एनीमिया, कैंसर, पार्किन्सन रोग आदि ।

जीन उपचार के लिए निम्न चरण होते है:-

  • इसके द्वारा आनुवंशिक रोग उत्पन्न करने वाला जीन का पता लगाया जा सकता है।
  • जीन आनुवंशिकी द्वारा क्लोनिंग करना |
  • जीन का विगलन करना |
  • जीन उपचार की उपयुक्त युक्ति का विकास।
  • शरीर मे इस जीन के उत्पाद की भूमिका ज्ञात करना ।

आण्विक निदान :- किसी भी रोग के प्रभावकारी इलाज के लिए रोग के प्रारम्भिक व रोग क्रिया के बारे में पता होना आवश्यक है। कुछ तकनीक से रोगो के प्रारम्भिक अवस्था मे रोग की पहचान की जाती है। जैव प्रौद्योगिकी से मोनोक्लोनल प्रतिरक्षी व अन्वेषकी द्वारा रोगो का चिकित्सकीय उपचार किया गया है।

DNA खण्डो के अध्ययन से मानव भ्रूण मे आनुवंशिक रोगो का निदान सम्भव हुआ है। जैव तकनीकी द्वारा अन्य रोगो के कारण को खोजा गया है तथा AIDS एवं अन्य रोगो की जाँच के लिए ELISA परीक्षण किया जाता है। (ELISA Enzyme Linked Immimosorbent asay)

पालीमरेज श्रृंखला अभिक्रिया (PCR) :- इस तकनीक द्वारा AIDS रोगी मे HIV पहचानने व कैंसर रोगियों में जीन मे होने वाले उत्परिवर्तन का पता लगाया जा सकता है यह एक ऐसी उपयोगी तकनीक है जिसके द्वारा विभिन्न आनुवंशिक दोषो को पहचाना जा सकता है।

परजीवी जन्तु :- वे जन्तु जिनका निर्माण बाह्य जीन के द्वारा होता है अर्थात् वे जन्तु जिनकी जनन कोशिकाओ में दूसरे जन्तु का जीन प्रवेश कराया जाता है। उन्हे परजीवी जन्तु कहा जाता है। जिस जीन को प्रवेश कराया जाता है, उसे पराजीन कहा जाता है।

जन्तुओं में निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए जीन स्थानान्तरण किया जाता है:-

  • आनुवंशिक रोगों के इलाज में उपयोग किया जाता है।
  • पराजीनो द्वारा जन्तुओ मे प्रोटीन उत्पादन किया जाता है।
  • जन्तुओ द्वारा दूध, माँस, ऊन आदि उत्पादन में सुधार लाने के लिया किया जाता है।
  • जीन विशेष को निष्क्रिय करने में किया जाता है।
  • जीनो के कार्य व संरचना के अध्ययन के लिए किया जाता है।

ट्रान्सजेनिक जन्तुओ के कुछ महत्त्वपूर्ण उपयोग निम्नलिखित है।

  • 1. सामान्य कार्यिकी व विकास :– वैज्ञानिको को ट्रान्सजेनिक जन्तुओ ने जीन की क्रिया, उनके नियंत्रण विकास पर प्रभाव की जानकारी प्राप्त करने के लिए आधार प्रदान किया।
  • 2.रोगो का अध्ययन :- रोगो के विकास मे जीन कैसे भाग लेता है। इसके लिए ट्रान्सजेनिक जन्तु के अध्ययन का प्रयोग किया जाता है।
  • 3. टीका सुरक्षा जाँच :- मनुष्य मे टीके का प्रयोग करने से पहले ट्रॉन्सजेनिक जनुओ मे जाँचा जाता है। इससे मनुष्य सुरक्षित रहता है। पोलियो टीका व अन्य टीका भी ट्रान्सजेनिक जन्तुओ (चूहे ) पर जाँचा गया |
  • 4.तीव्र वृद्धि :- वृद्धि वर्धकजीनी को पालतू जन्तुओ बाद मे प्रवेश कराने पर उनकी वृद्धि तेजी से बढ़ने लगती है। जिसके बाद भेड़ ज्यादा माँस उत्पन्न कर सकती है। इसके द्वारा ही मछली का आकार दोगुना हो जाता है।

नैतिक मुद्दे (Ethical Issue)

मनुष्य के क्रियाकलापो के लिए जो जीवधारियो के लिए असुरक्षात्मक या सहायक हो उसके आचरण को जानने के लिए कुछ नैतिक माप दण्डो की जरूरत होती है:-

1.जैव पेटेन्ट :- इसके अन्दर जैव पदार्थ की खोज करने वाले को सरकार रक्षा प्रदान करती है। जिससे उस नाम से कोई और उस उत्पाद का निर्माण न कर सके और न ही उसे बेच सके। ऐसा करने के लिए उसे पेटेन्ट प्राप्त व्यक्ति या संस्था से अनुमति लेनी पड़ती है और उसकी कीमत देनी होगी।

उदाहरण – धान (चावल) हजारो साल पहले से एशिया में उगाया जा रहा है। लगभग – लगभग लाखो धान की किस्मे भारत मे पाई जाती है।

बासमती धान अपनी सुगन्ध व स्वाद के लिए विख्यात है। इसकी 27 किस्मे भारत में पाई जाती है।

2.बायोपाइरेसी :- जब किसी देश के जैविक संसाधनो का समुचित प्रतिकर भुकतान किए बगैर उन संसाधनो का उपयोग करते है तो इसे बायोपाइरेसी कहते है। जैविक स्रोत का प्रयोग कृषि, रासायनिक उद्योग व चिकित्सा क्षेत्र में किया जाता है।

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Chapter 1 जीवो मे जन
Chapter 2 पुष्पी पौधो में लैंगिक जनन
Chapter 3 मानव जनन
Chapter 4 जनन स्वास्थ्य
Chapter 5 वंशागति एवं विविधता के सिद्धांत
Chapter 6 वंशागति का आणविक आधार
Chapter 7 विकास
Chapter 8 मानव स्वास्थ्य तथा रोग
Chapter 9 खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति
Chapter 10 मानव कल्याण मे सूक्ष्मजीव
Chapter 11 जैव प्रौद्योगिकी: सिद्धान्त एवं प्रक्रम

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