यहाँ हमने Class 12 Biology Chapter 11 Notes in Hindi दिये है। Class 12 Biology Chapter 11 Notes in Hindi आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।
Class 12 Biology Chapter 11 Notes in Hindi
प्राचीन काल मे जैविक प्रक्रियाओ के द्वारा मानव हेतु उपयोगी पदार्थो या प्रक्रमो के विकास को ही जैव प्रौद्योगिकी कहते थे। इसे प्राचीन जैव प्रौद्योगिकी भी कह सकते है। जैसे- सिरका, दही, शराब आदि का बनना ।
आज के समय मे पुनर्योजन DNA तकनीक के प्रयोग द्वारा जीवो मे बहुमूल्य क्षमताओ का विकास हो गया है जिसे नवीन जैव प्रौद्योगिकी कहते हैं।
परिभाषा:- जीवो, सजीव तन्त्रो या कोशिकीय अवयवों की तकनीक का मानव सेवा के लिए उपयोग करने की ही जैव प्रौद्योगिकी कहते है।
जैव प्रौद्योगिकी के सिद्धान्त
आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी में निम्नलिखित तकनीको का प्रमुख योगदान रहा है।
(i) आनुवांशिक अभियान्त्रिकी :–
आनुवांशिक अभियान्त्रिकी का जनक पॉल बर्ग को माना जाता है।
जीवों मे वांछित लक्षण प्रारूप प्राप्त करने के लिए आनुवांशिक पदार्थ ( जीन या DNA खंड) को जोड़ने, हटाने या ठीक करने को आनुवांशिक अभियांत्रिकी कहते है।
(ii) रासायनिक अभियांत्रिकी :-
रासायनिक अभियांत्रिकी के अन्तर्गत रोगाणु रहित वातावरण मे केवल वांछित सूक्ष्मजीवो या प्रोकेरियोटिक कोशिकाओ की वृद्धि कराकर अधिक मात्रा मे जैव प्रौद्योगिकी उत्पाद (जैसे एन्टीबायोटिक, टीके स्वं एंजाइम आदि) प्राप्त किये जाते हैं।
पुनर्योगज DNA का निर्माण
- सर्वप्रथम स्टेनले कोहेन व हरबर्ट बोयर ने 1972 ई० मे पुनर्योगज DNA का निर्माण किया । इन्होने साल्मोनेला टाइफीमूरियम के मूल प्लाज्मिड मे प्रतिजैविक प्रतिरोधी जीन को जोड़ा और उसमें सफलता प्राप्त की।
- इन्होने आण्विक कैंचियो के माध्यम से प्रतिजैविक प्रतिरोधी प्लाज्मिड से प्रतिजैविक प्रतिरोधी जीन वाले DNA खण्ड को काटा और इस खण्ड को प्लाज्मिड DNA से DNA लाइगेज एन्जाइम द्वारा जोड़ने पर संकर या पुनर्योगज DNA का निर्माण होता है।
- इसे ई. कोलाई मे स्थानान्तरित करने पर यह DNA पॉलीमरेज एंजाइम की सहायता से अनेक प्रतिकृतिया बना लेता है।
- प्रतिजैविक प्रतिरोधी जीन के ई. कोलाई मे गुणन को प्रतिजैविक प्रतिरोधी जीन की क्लोनिंग कहते है।
किसी जीव मे आनुवांशिक रुपातरण के प्रमुख चरण निम्नलिखित होते हैं:-
- (i) वांछित जीन युक्त DNA की पहचान करना ।
- (ii) वांछित जीन या DNA खण्ड का परपोषी मे रुपान्तरण ।
- (iii) स्थानान्तरित DNA को परपोषी मे सुरक्षित रखना तथा उसको संतति में स्थानान्तरित करना ।
पुनर्योगज DNA तकनीक के साधन
(1) प्रतिबंधन एंजाइम (Restriction Enzyme)
- ये एंजाइम DNA को विशेष स्थलो से काटते है।
- ये केवल द्विसूत्री DNA पर ही क्रिया करते हैं।
- इन्हे आण्विक कैचियां या रासायनिक चाकू भी कहा जाता है।
- जीवाणुओ के 230 से भी ज्यादा प्रभेदो से 900 से भी अधिक प्रतिबंधन एंजाइम अलग किए जा चुके है।
- प्रतिबंधन एंजाइम न्यूक्लिएज समूह के अन्तर्गत आते हैं।
- न्यूक्लिएज एंजाइम दो प्रकार के होते हैं:-
- (अ) एक्सोन्यूक्लिएज
- (ब) एण्डोन्यूक्लिएज
- एक्सोन्यूक्लिएज एंजाइम DNA के सिरे से न्यूक्लिओटाइड्स को काटता है।
- एण्डोन्यूक्लिएज एंजाइम DNA को बीच में से, विशिष्ट स्थानो पर काटता है।
पेलिन्ड्रोम
यह वर्णो या अक्षरो का एक ऐसा समूह है जिससे बना शब्द आगे या पीछे से पढ़ने पर समान शब्द बनाता है। जैसे कनक, नमन,मलयालम आदि ।
DNA पेलिन्ड्रोम से यह तात्पर्य है कि DNA के दोनो सूत्रो के क्षारक युग्मो का ऐसा अनुक्रम जिसे पढ़ने का अभिविन्यास समान रखा जाये (जैसे 5’3′ या 3’5′) तो दोनो DNA सूत्रो पर एक जैसे अनुक्रम पढने को मिलता है। उदा→ 5′ G-A-A-T-T-C 3′
3′ C-T-T-A-A-G 5′
प्रतिबंधन एंजाइमों का नामकरण
प्रतिबंधन एंजाइम के नाम का पहला केपिटल अक्षर उस प्रोकेरियोटिक कोशिका के वंश के नाम का पहला अक्षर होता है जिससे कि उसे प्राप्त किया गया है। इस प्रकार दूसरा व तीसरा अक्षर जाति से लिया जाता है।
जैसे:- Eco RI एन्जाइम Escherichia coli से प्राप्त किया गया है।
E अक्षर को वंश से तथा Co अक्षर को जाति से चुनकर Eco शब्द का निर्माण किया गया है। जहाँ R प्रभेद का प्रतिनिधित्व करता है।
अतः E = Escherichia, Co = coli, R = प्रभेद, I – रोमन नम्बर से Eco RI एन्जाइम का नामकरण हुआ ।
DNA खण्ड का पृथक्करण
- प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज एंजाइम द्वारा DNA को छोटे छोटे खण्डो मे विभाजित किया जाता है।
- इन टुकडो को इलेक्ट्रोफोरेसिस तकनीक द्वारा अलग किया जा सकता है।
- DNA के इन ऋणावेशित टुकडो को एनोड की तरफ भेज कर अलग कर सकते है।
- इस प्रक्रिया में ऐगारोज माध्यम का उपयोग किया जाता है।
- ऐगारोज समुद्री घास से प्राकृतिक बहुलक के रूप मे प्राप्त किया जाता है।
- ऐगारोज जेल मे छलनी प्रभाव द्वारा DNA के टुकड़े आकार के अनुसार अलग हो जाते हैं।
- DNA के टुकडे जितने छोटे होते हैं, वे ऐगारोज जेल पर उतने ही दूर तक जाते हैं।
- DNA के इन खण्डो को देखने के लिए इथीडियम ब्रोमाइड से अभिरंजित करके पराबैंगनी विकिरणो के प्रभाव मे लाया जाता है।
- अभिरंजित DNA खण्ड पराबैगनी विकिरणो के प्रभाव से चमकीले नारंगी रंग की पट्टियो के रूप में दिखाई देता है।
- DNA की इन पट्टियों को काट कर अलग कर लिया जाता है तथा जैल को निष्कर्षित कर दिया जाता है, इस प्रक्रिया को क्षालन कहते हैं।
- इस प्रकार अलग किये हुए वांछित DNA खण्ड को क्लोनिंग वाहक से जोड़कर पुनर्योगज DNA का निर्माण किया जाता है।
(2.) पालीमरेज एंजाइम (Golymerase Enzyme)
ये एंजाइम टेम्प्लेट पर न्यूक्लिओटाइडो का बहुलीकरण करते हैं, जिससे DNA का निर्माण होता है। DNA पॉलीमरेज एंजाइम की सहायता से पुनर्योगज DNA (संकर या काइमेरिक DNA) के गुणन द्वारा अनेक प्रतियाँ तैयार की जा सकती है। DNA की इन प्रतियों को C – DNA (कापी DNA) कहते है।
(3.) लाइगेज एंजाइम (Ligase Enzyme)
यह एंजाइम वाहक DNA एवं वांछित DNA (विदेशी DNA) खण्ड को जोड़ने के काम आते है।
(4.) क्लोनिग वाहक (clonning Vectors)
- क्लोनिग वाहक के रूप मे मुख्यतः प्लाज्मिड एवं जीवाणुभोजी को काम मे लिया जाता है।
- ये वाहक जीवाणु कोशिकाओ में स्वतन्त्र रूप से प्रतिकृतियाँ बनाने में सक्षम होते हैं।
- जीवाणुभोजी के जीनोम की जीवाणु कोशिकाओ में अनेक प्रतिकृतियाँ बना लेता है।
- कुछ प्लाज्मिड की जीवाणु कोशिका में एक या दो प्रतिकृतियाँ जबकि कुछ प्लाज्मिड की 15-100 तक प्रतिकृतियाँ बन सकती है।
- यदि विजातीय या वाछित DNA खंड को इन वाहको से जोड़ दिया जाये तो वाहक के साथ-साथ विजातीय DNA की संख्या भी गुणित हो जाती है।
वाहक मे क्लोनिग करने हेतु निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए |
(i) प्रतिकृतियन का उद्गम :-
- वाहक मे प्रतिकृतियन का उद्रम होना चाहिए। यह एक ऐसा अनुक्रम है, जो प्रतिकृतियन आरम्भ करने के लिए आवश्यक है।
- जब कोई DNA खंड इस अनुक्रम से जुड़ जाता है तब ही उसका परपोषी कोशिका में प्रतिकृतियन संभव है। यह अनुक्रम जोड़े गए DNA के प्रतिरूपो की संख्या के नियन्त्रण के लिए भी उत्तरदायी है।
(ii) वरण योग्य चिह्नक :-
- वाहक से प्रतिकृतियन के उद्रम के साथ-साथ वरण योग्य चिन्हक का भी होना आवश्यक है।
- वरण योग्य चिन्हक अरुपान्तरजो की पहचान करने पर उन्हे समाप्त करने मे सहायक होते हैं।
- ये चिन्हक रूपान्तरजो की चयनात्मक वृद्धि में भी सहायक होते है।
- रुपान्तरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा DNA खंड परपोषी जीवाणु मे प्रवेश करता है |
- प्राय: एंपिसिलिन, क्लोरैम्फेनिकॉल, टेट्रा साइक्लीन या कैनामाइसीन जैसे प्रतिजैविक प्रतिरोधी जीनो को ई. कोलाई के लिए वरण योग्य चिन्हक माना जाता है।
(iii) क्लोनिंग स्थल :-
वाहक मे एक ही पहचान स्थल होना चाहिए जहाँ प्रतिबंधन एंजाइम क्रिया कर सके तथा पुनर्योजक DNA को जोड़ा जा सके।
एक से अधिक पहचान स्थल होने पर प्रतिबंधन एंजाइम की क्रिया द्वारा वाहक कई स्थानो पर कट जायेगा तथा जीन क्लोनिंग भी जटिल हो जायेगा ।
PBR322 नामक प्लामिड मे ट्रेट्रासाइक्लीन प्रतिरोधी एवं एपिसिलिन प्रतिरोधी जीन होते हैं। हेतु
(iv) जीन क्लोनिंग हेतु वाहक :-
जीन स्थानान्तरण की क्रिया प्रकृति मे हमने इस क्रिया आदिकाल से चली आ रही है। को जीवाणुओं एवं विषाणुओं से ही सीखा है । इन जीवाणुओं एवं विषाणुओं के द्वारा यूकेरियोटिक कोशिकाओ मे जीन स्थानान्तरण किया जाता है जिससे परपोषी कोशिकाएँ जीवाणुओ व विषाणुओ के अनुरूप कार्य करने लगती है।
एग्रोबैक्टीरियम ट्यूमीफेसियन्स जीवाणु कई द्विबीजपत्री पादपो मे रोग उत्पन्न करता है। यह जीवाणु DNA के एक खंड को सामान्य पादप कोशिका मे स्थानांतरित करके उन्हे अर्बुद (ट्यूमर) कोशिकाओ में रुपान्तरित कर देता है। ये अर्बुद कोशिकाएँ एग्रोबेक्टीरियम जीवाणु के लिए आवश्यक रसायनो का निर्माण करती है।
(5.) परपोषी जीव :-
पुनर्योगज DNA को जीवाणु कोशिका (परपोषी) में प्रवेश करने से पहले जीवाणु कोशिका को पुनर्योगज DNA लेने हेतु सक्षम बनाया जाता है। इसके लिए जीवाणु कोशिका को द्विसंयोजन धनायन की विशिष्ट से संसाधित किया जाता है।
इससे पुनर्योगज DNA को जीवाणु कोशिका मे प्रवेश करने में सहायता मिलती है। जीवाणु कोशिका को बर्फ पर रखकर उसमे पुनर्योगज DNA को बलपूर्वक प्रवेश कराते है । इसके बाद कुछ समय के लिए 42oC (ताप प्रघात) पर व फिर बर्फ पर रखा जाता है।
परपोषी कोशिका मे पुनर्योगज DNA को प्रवेश कराने की कई अन्य विधियाँ भी है। इसमें से कुछ प्रमुख है:-
(i) सूक्ष्म अन्तक्षेपण :-
सूक्ष्म अन्तक्षेपण के द्वारा पुनर्योगज DNA को सीधे ही जन्तु कोशिका के केन्द्रक में प्रवेश करा दिया जाता है।
(ii) जीनगन या बायोलिस्टीक :-
इस विधि मे DNA से आवृत्त सोने या टंगस्टन के सूक्ष्म कणो को पादप कोशिका मे उच्च वेग के साथ प्रवेश कराया जाता है।
पुनर्योगज DNA तकनीक की प्रक्रिया
इसके प्रमुख चरण निम्नलिखित है:-
(i) DNA पृथक्करण या विलगन :-
- वांछित जीन या DNA वाली कोशिकाओ का चयन करके उनका लयन किया जाता है जिससे उनका DNA (या गुणसूत्र) बाहर निकल आये।
- इसके लिए वांछित DNA युक्त कोशिकाओ को लाइसोजाइम (जीवाणु) सेल्यूलेज (पादप कोशिका) व काइटीनेज (कवक) एंजाइम से संसाधित किया जाता है।
- DNA को हिस्टोन प्रोटीन व आर. एन. ए. से अलग करने के लिए प्रोटीएज व राइबोन्यूक्लिएज से उपचारित किया जाता है। शोधित DNA को अवक्षेपित करने के लिए द्रुतशीतित एथेनॉल मिलाया जाता है।
(ii) DNA खंडन :-
- प्रतिबंधन एंजाइम को शोधित DNA अणुओ के साथ इष्टतम परिस्थितियो मे रखा जाता है।
- प्रतिबंधन एंजाइम पाचन का नियन्त्रण ऐगारोज जेल इलेक्ट्रोफोरेसिस द्वारा किया जाता है।
- ऋणावेशित DNA अणु धनावेशित इलेक्ट्रोड (ऐनोड) की ओर गतिमान होते हैं।
- उपर्युक्त प्रक्रिया वाहक DNA के साथ भी सम्पन्न की जाती है।
- स्रोत DNA व वाहक DNA को एक ही विशिष्ट प्रतिबंधन एंजाइम द्वारा काटा जाता है।
(iii) पुनर्योगज DNA का निर्माण :-
स्रोत DNA से कटे हुए वांछित DNA खंड को लाइगेज एंजाइम की सहायता से वाहक के साथ जोड़ दिया जाता है। वाहक एवं वांछित DNA खंड के जुड़ने से पुनर्योगज DNA का निर्माण होता है।
PCR (Polymerase Chain Reaction)
- कैरीमुलिस ने 1985 मे पॉलीमरेज श्रृंखला अभिक्रिया का उद्भव किया |
- PCR द्वारा DNA के छोटे से टुकड़े से कम ही समय मे करोडो प्रतियाँ तैयार की जा सकती है।
- इसमे टेक DNA पालीमरेज को सामान्य DNA पॉलीमरेज के स्थान पर उपयोग में लिया जाता है।
- थर्मस एक्वाटिकस नामक जीवाणु से टेक DNA पालीमरेज एन्जाइम प्राप्त होता है। यह एन्जाइम ताप स्थायी होता है।
- इस विधि द्वारा अन्य कई आनुवांशिक रोगो का भी पता लगाया जा सकता है।
(iv) पुनर्योगज DNA का परपोषी कोशिका या जीव में स्थानान्तरण :-
- जब ग्राही कोशिका पुनर्योगज DNA को ग्रहण करने मे सक्षम हो जाती है, तो किसी भी उपयुक्त विधि द्वारा ग्राही या परपोषी कोशिका में DNA प्रवेश कराया जाता है। है
- यदि एंपिसिलिन प्रतिरोधी जीन युक्त पुनर्योगज DNA को ई. कोलाई जीवाणु कोशिका में प्रवेश करवा दिया जाता है तो ये कोशिकाएँ भी एपिसिलित प्रतिरोधी हो जाती है।
(v) परपोषी कोशिकाओ का माध्यम मे एक पैमाने पर संवर्धन :–
- पुनर्योगज DNA मे उपस्थित बाहरी जीन उपर्युक्त परिस्थितियो मे उत्पाद निर्माण के रूप में अभिव्यक्त होता है।
- इस संवर्धन से विभिन्न तकनीको द्वारा प्रोटीन का निष्कर्षण व शोधन किया जाता है।
- कोशिकाओ के सतत संवर्धन के लिए पुराने पोषक माध्यम को निकालने व ताजा पोषक माध्यम को डालने की व्यवस्था की जाती है।
- इससे कोशिकाओ की सक्रियता व संख्या अधिकतम बनी रहती है तथा वांछित प्रोटीन (उत्पाद) भी अधिकतम प्राप्त होता है।
- व्यावसायिक दृष्टि से अधिक उत्पादन के लिए बायोरिएक्टर का उपयोग किया जाता है।
- बायोरिएक्टर् द्वारा 100 – 1000 लीटर तक संवर्धन कर संशोधित किया जाता है।
- विलोडिन बायोरिएक्टर सबसे अधिक प्रयोग मे आने वाला बायोरिएक्टर है।
विलोडिन हौज बायोरिक्टर
- यह बायोरिएक्टर बेलनाकार एवं घुमावदार आधार वाला होता है।
- इसमे अन्तवस्तुओ को मिलाने की व्यवस्था होती है।
- इसका विलोडक O2 समान रूप से वितरित करने की व्यवस्था न करता है तथा मिश्रण को समरूप बनाता है।
- कुछ समय पश्चात रिक्टरो मे बुलबुलो के रूप मे हवा डाली जाती है।
- इस रिएक्टर मे प्रक्षोभक यन्त्र, O2 प्रदाय यन्त्र, झाग नियन्त्रण तन्त्र, ताप नियन्त्रण तन्त्र, नियंत्रण तंत्र एवं प्रतिचयन प्रद्वार लगा होता है।
- प्रतिचयन प्रद्वार द्वारा संवर्धन की थोडी – थोडी मात्रा समय-समय पर निकाली जाती है।
(vi) वांछित उत्पाद का निष्कर्षण :-
- संवर्धन द्वारा जैव संश्लेषण पूरा होने पर वांछित उत्पादों का पृथक्करण एवं शुद्धिकरण किया जाता है, इसे सामूहिक रूप से अनुप्रवाह संसाधन कहा जाता है।
- वांछित उत्पाद को परिरक्षक द्वारा संरूपित किया जाता है।
- उत्पाद औषधिय महत्त्व का होने पर उसका चिकित्सकीय परीक्षण किया जाता है।
- प्रत्येक उत्पाद के लिए गुणवत्ता नियन्त्रण के लिए भिन्न-भिन्न परिक्षण किए जाते है।
Chapter 1 जीवो मे जनन
Chapter 2 पुष्पी पौधो में लैंगिक जनन
Chapter 3 मानव जनन
Chapter 4 जनन स्वास्थ्य
Chapter 5 वंशागति एवं विविधता के सिद्धांत
Chapter 6 वंशागति का आणविक आधार
Chapter 7 विकास
Chapter 8 मानव स्वास्थ्य तथा रोग
Chapter 9 खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति
Chapter 10 मानव कल्याण मे सूक्ष्मजीव
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