आनुवांशिकता:- जीवो में जनक से (माता-पिता से) लक्षणों का संतान में जाना आनुवांशिकता कहलाता है। आनुवांशिकता का अध्ययन आनुवांशिक के अंतर्गत किया जाता है ।
- आनुवांशिक गुणों का वहन डीएनए में स्थित गुणसूत्र पर छोटे-छोटे जीनो के द्वारा होता है ।
- आनुवांशिकता का जनक ‘ग्रेगर जॉन मेंडल’ को कहा जाता है।
लक्षण
जीव धारियों में जो अलग अलग गुण पाए जाते हैं उन्हें लक्षण कहते हैं |
लक्षण दो प्रकार के होते हैं|
- प्रभावी लक्षण
- अप्रभावी लक्षण
1. प्रभावी लक्षण:- ऐसे लक्षण जो जनक से पुत्री पीढ़ी मैं दिखाई देते हैं, उन्हें प्रभावी लक्षण कहते हैं |
प्रभावी लक्षण हमें बाहर दिखाई देते हैं। जैसे:- माता-पिता लंबे होने पर पुत्र या पुत्री का भी लंबा होना, मेंडल के प्रयोग में लंबापन।
2. अप्रभावी लक्षण:- ऐसे लक्षण जो जनक से पुत्री पीढ़ी में दिखाई नहीं देते हैं, उन्हें अप्रभावी लक्षण कहते हैं।
अप्रभावी लक्षण हमें बाहर से दिखाई नहीं देते है। जैसे:- माता-पिता के लंबे होने पर पुत्र या पुत्री का बोना होना, मेंडल के प्रयोग में बोनापन |
विविधता
संसार में लगभग 10 लाख प्रकार के प्राणी तथा लगभग 3 लाख 43 हज़ार प्रकार की पादप प्रजाति पाई जाती है, ये सभी प्रजातियां संरचना व क्रियात्मक रूप से अलग-अलग होते हैं। इसे विविधता या जैव विविधता कहते हैं।
विविधता तीन प्रकार की होती है-
- आनुवांशिकी
- प्रजातीय
- पारिस्थितिक तंत्र
1. आनुवांशिकी विविधता:- ऐसी विविधता जो जनक प्रजाति से संतान में उत्पन्न होती है, उसे आनुवांशिकी विविधता कहते हैं। जैसे:- ज्यादातर संतान माता-पिता से गुणों में अलग पायी जाती है|
2. प्रजातीय विविधता:- ऐसी विविधता जो किसी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में चली जाती है। जैसे – चीता बिल्ली का रूप है और मानव बंदर का रूप है।
3. पारितंत्र विविधता:- ऐसी विविधता जो पारितंत्र में परिवर्तन के कारण होती है | जैसे – पारितंत्र में विविधता के कारण S-6 प्रकार की गोभी पाई जाती है|
विविधता की आवश्यकता
विकास:- विभिन्न प्रजातियों द्वारा प्रकृति में आने वाले परिवर्तन की तरह खुद को बदलकर वृद्धि करते रहना अर्थात अगर हम प्रकृति में आने वाले परिवर्तन के साथ तालमेल बिठा लेते हैं तो हम जिंदा रह सकते हैं और हमारी संतति आगे बढ़ती रहती है। इसे ही विकास कहा जाता है। उदाहरण के लिए हम 12 लाल भृंग लेते हैं जो एक हरी झाड़ी में रहता है। किसी कारणवश एक भृंग हरा प्राप्त हो जाता है। लाल भृंगो को कौऔ द्वारा आसानी से खा लिया जाता है और भृंग हरी झाड़ियों में दिखाई नहीं देता है तो वह जिंदा रहता है इससे हम कह सकते हैं कि हरे भृंगो ने प्रकृति के अनुसार ढाल दिया था। इसी कारण उनकी सन्तत्ति आगे बढ़ती गई और लाल भृंग धीरे-धीरे खत्म हो गया।
मानव में लिंग निर्धारण
मानव में 23 जोड़ी गुणसूत्र पाए जाते हैं जिनमें से केवल 1 जोड़ी गुणसूत्र लिंग निर्धारण में काम आते हैं। गुणसूत्रों के ऊपर स्थित जीन आनुवांशिक गुणों का वहन करता है।
गुणसूत्रों को दो भागों में बांटा जाता है –
- a. समजात गुणसूत्र
- b. विषमजात गुणसूत्र
a. समजात गुणसूत्र:- वे गुणसूत्र जो नर व मादा में समान पाए जाते हैं, वे समजात गुणसूत्र होते हैं। 22 जोड़ी गुणसूत्र (अर्थात 44 गुणसूत्र ) समजात गुणसूत्र होते है।
यह गुणसूत्र जनन में भाग नहीं लेते हैं अर्थात इनके द्वारा लिंग का निर्धारण नहीं होता।
b. विषमजात गुणसूत्र:- वह गुणसूत्र जो नर व मादा में समान नहीं पाए जाते हैं, उसे विषमजात गुणसूत्र कहते हैं । 1 जोड़ी गुणसूत्र (अर्थात 2 गुणसूत्र ) विषमजात गुणसूत्र होते हैं। ये जनन में भाग लेते हैं, अर्थात इनके द्वारा लिंग का निर्धारण होता है।
लिंग निर्धारण में पिता का गुणसूत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और निर्धारित करता है कि लड़की होगी या लड़का।
लिंग के निर्धारण में लड़का और लड़की होने की संभावना 50% – 50% होती है।
अनुपात = 1:1
जाति उद्भव
प्रत्येक जाति का उद्भव पर्यावरणीय परिवर्तन की वजह से होता है। यह परिवर्तन धीरे-धीरे परंतु महत्वपूर्ण होते हैं। ये परिवर्तनों के कारण एक लंबे समय के पश्चात नयी नयी प्रजातियों का निर्माण होता है। इसे जाति उद्भव कहाँ जाता है।
उदाहरण के लिए जंगली गोभी के विकास से धीरे-धीरे ब्रोकोली, लाल गोभी, गंठ गोभी आदि का निर्माण होता है।
समजात व समवृत्ति अंग:- वे अंग जिनकी उत्पत्ति और संरचना समान होती है परंतु उनके कार्य अलग-अलग होते हैं। उदाहरण:- मेंढक के अग्र पैर, पक्षियों के पंख, मानव के हाथ।
समवृति अंग:- वे अंग जिनकी उत्पत्ति और संरचना अलग-अलग होती है और कार्य सभी के समान होते हैं, उन्हें समवृति कहते हैं।
उदाहरण:- पक्षि व कीट के पंख।
जीवाश्म
लुप्त हुए जीवो के अंगों के कुछ भाग या अवशेष या चट्टानों पर पाए जाने वाले उनके अंगों के छाप जीवाश्म कहलाते हैं, जीवाश्म के अध्ययन से जैव विकास होने का प्रमाण मिलता है। जीवाश्म की उम्र ज्ञात करने के लिए दो विधिया काम में ली जाती है।
- खुदाई
- कार्बन डेटिंग पद्धति
खुदाई:- जब किसी जीव की मृत्यु हो जाती है तो वे मिट्टी में दब जाते हैं। धीरे-धीरे और मिट्टी एकत्रित हो जाती है और अधिक दाब व ताप की वजह से वे चट्टान में बदल जाते हैं। कुछ मिलियन साल बाद अन्य जीवो के मरने से वे भी इसी प्रकार चट्टान में बदल जाते हैं। लाखों करोड़ों साल में यह अत्यधिक गहराई में चले जाता है और जब इनकी खुदाई की जाती है तो जो जीवाश्म सबसे ऊपर रहता है वह कम पुराना तथा गहराई में जाने से ये जीवाश्म अत्यधिक (करोड़ों साल) पुराने हो जाते हैं। इसी अनुमान के द्वारा जीवाश्म की उम्र का अनुमान लगाया जाता है |
कार्बन डेटिंग पद्धति (फॉसिल डेटिंग):- जिवाश्म की उम्र ज्ञात करने के लिए यह विधि सटीक और महत्वपूर्ण है क्योंकि या पद्धति खुदाई पद्धति से सटीक आंकड़े प्रदान करती है। इस विधि में जीवाश्म पाए जाने वाले किसी एक तत्व के विभिन्न समस्थानिको के अनुपात के आधार पर जिवाश्म का समय निर्धारित किया जाता है।
Chapter 1: रासायनिक अभिक्रियाएँ एवं समीकरण
Chapter 2: अम्ल, क्षारक एवं लवण
Chapter 3: धातु एवं अधातु
Chapter 4: कार्बन एवं उसके यौगिक
Chapter 6: जैव प्रक्रम
आनुवांशिकता में मेंडल का योगदान
आनुवांशिकता का जनक “ग्रेगर जॉन मेंडल” को कहा जाता है।
ग्रेगर जॉन मेंडल ने मटर के पौधे पर अपने प्रयोग किए तथा आनुवांशिकता के नियम प्रदान किए। उन्होंने अपने कार्य को सन् 1866 में ब्रुन सोसाइटी ऑफ नेचुरल हिस्टरी थ्योरी नामक पुस्तक में प्रकाशित किया।
मेंडल ने अपने प्रयोगो में मटर के पौधों को चुना क्योंकि मटर का पौधा कम समय में वर्ष भर उगता है इसलिए मटर के पौधे से उसे इन प्रयोगों में सहायता मिली। मेंडल ने मटर के पौधो के 7 गुणों का अध्ययन किया।
- a. पौधे की ऊंचाई
- b. पुष्प का रंग
- c. बीज की आकृति
- d. पुष्प की स्थिति
- e. बीजों का रंग
- f. फली का आकार
- g. फली का रंग
ग्रेगर जॉन मेंडल ने दो प्रयोग किए थे और उस आधार पर उसने दो नियम दिए।
(i). प्रभाविकता का नियम
मेंडल ने इस प्रयोग में 1 जोड़ी विपरीत लक्षण वाले पौधे के बीच संकरण कराया तो प्रथम पीढ़ी में केवल एक लक्षण प्रकट हुआ (लंबा लक्षण) और जब पुनः संकरण करवाया गया तो द्वितीयक पिढि में तीन लंबे एक बोना पौधा प्राप्त हुआ। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लंबा गुण प्रभावी लक्षण तथा बोना गुण अप्रभावी लक्षण के रूप में प्राप्त होता है।
मेंडल के इस नियम में F2 पीढ़ी में प्राप्त पौधों काअनुपात 3 :1 प्राप्त होता है अर्थात 3 लम्बे तथा एक बोना पौधा प्राप्त होता है। इसे ही मेंडल के अनुवांशिकता के प्रभाविकता के नियम के नाम से जाना जाता है।
2. मेंडल का द्वितीय नियम (मेंडल का स्वतंत्र अपत्यहन का नियम)
मेंडल ने इस नियम में 2 जोड़ी विपरीत लक्षण वाले दो पौधों के बीच संकरण करवाया तो इन लक्षणों का पृथकरण रूप से होता है। इस नियम के द्वारा हम कह सकते हैं कि कौन सा गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाता है और कौन सा नहीं। उदाहरण के लिए मेंडल ने गोल व पीले बीज वाले पौधे का संक्रण झूरीदार व हरे बीज वाले पौधे के साथ करवाया तो F1 पीढ़ी में स्वपरागण के द्वारा गोल व पीले पौधे अत्यधिक मात्रा में प्राप्त हुए।
RY | Ry | rY | ry | |
---|---|---|---|---|
RY | RRYY गोल व पीला | RRYy गोल व पीला | RrYY गोल व पीला | RrYy गोल व पीला |
Ry | RRYy गोल व पीला | RRyy गोल व हरा | RrYy गोल व पीला | Rryy गोल व हरा |
rY | RrYY गोल व पीला | RrYy गोल व पीला | rrYY झूरीदार व पीला | rrYy झूरीदार व पीला |
ry | RrYy गोल व पीला | Rryy गोल व हरा | rrYy झूरीदार व पीला | rryy झूरीदार व हरा |
R – गोल बीज, r – झुरीदार बीज
Y – पीला बीज, y – हरा बीज
इस चेकर बोर्ड से हमें F2 पीढ़ी में निम्न परिणाम मिलते हैं:-
- (i) 9 पौधे गोल व पीले बीज वाले
- (ii) 3 पौधे गोल व हरे बीज वाले
- (iii) 3 पौधे झूरीदार व पीले बीज वाले
- (iv) 1 पौधा झुरीदार व हरा बीज वाला
DNA
DNA हमारी कोशिका के केंद्रक में पाया जाता है। कुछ मात्रा में माइटोकॉन्ड्रिया और क्लोरोप्लास्ट में भी पाए जाते हैं। DNA की खोज “फ़्रेडिक मीक्ष” ने की थी। DNA एक लंबी श्रृंखला बाली आकृति के रूप में होता है।
DNA में गुणसूत्र पाए जाते हैं। उन पर जीन पाए जाते हैं जो कि अनुवांशिक गुणों का परिवहन करते हैं। डीएनए में एक अम्ल व एक नाइट्रोजन क्षारक पाया जाता है।
DNA की संरचना
DNA की संरचना “वाटसन व क्रिक” ने दी थी, उन्होंने डीएनए की संरचना का द्विरज्जुकी मॉडल दिया था।
DNA का महत्त्व
- DNA का महत्वपूर्ण कार्य आनुवांशिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाना है।
- DNA कोशिका की सभी जैविक क्रियाओं का नियंत्रण करता है।
- DNA प्रतिकृति बनाकर कोशिका विभाजन को संपन्न करता है।
- DNA से RNA का संश्लेषण होता है जो कि प्रोटीन के निर्माण में सहायता करता है।
लेमार्कवाद का सिद्धांत
लेमार्क का पूरा नाम “जिनबेप्टिस्ट डी लेमार्क” था। लैमार्क ने सन 1809 मैं अपनी पुस्तक “फिलोसोफिक जूलोजिक” का प्रकाशन किया। इस आधार पर उन्होंने निम्न बिंदुओं पर प्रकाश डाला।
- वातावरण का सीधा प्रभाव:- लेमार्क के अनुसार जीवो पर वातावरण का सीधा प्रभाव पड़ता है इससे उनकी संरचना व स्वभाव बदल जाते हैं।
- अंगों का प्रयोग तथा अनुप्रयोग:- लेमार्क ने बताया कि जीवो में कुछ परिवर्तन उनकी आवश्यकताओं के अनुसार होता है। ऐसे अंगों का विकास होता है जिनका प्रयोग अधिक होता है और ऐसे अंग धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं जिनका प्रयोग कम होता है। जैसे:- जिराफ की गर्दन अधिक लंबी हो गई जबकि मानव में पूंछ विलुप्त हो गई।
- उपार्जित लक्षणों की वंशागति:- उपार्जित लक्षण एक पीढि से दूसरी पीढि में वंशागत होते हैं तथा अंत में नई जाती का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए ऊँचे पेड़ों की पत्तियाँ खाने के लिए जिराफ की लंबी गर्दन का होना।
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