यहाँ हमने Class 10 Science Chapter 6 Notes in Hindi दिये है। Class 10 Science Chapter 6 Notes in Hindi आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।
Class 10 Science Chapter 6 Notes in Hindi
सजीव:- जीवित वस्तुओं को सजीव कहते है। सभी पौधे और जन्तु सजीव वस्तुएँ है।
सजीवों के लक्षण:- गति, प्रचलन, पोषण, वृद्धि, श्वसन, उत्सर्जन, प्रजनन, मृत्यु आदि सजीवों के प्रमुख लक्षण है।
निर्जीव:- जिन वस्तुओं में उपरोक्त लक्षण नहीं पाए जाते है। उन्हें निर्जीव कहते है।
जैव प्रक्रम: जीवधारियों में जीवित रहने के लिए होने वाली समस्त क्रियाओं को सामूहिक रूप से “जैव प्रक्रम” कहा जाता है।
वे सभी प्रक्रम जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करते है। उसे “जैव प्रक्रम” कहते है।
जैसे- पोषण, पाचन, श्वसन, वहन, उत्सर्जन, प्रचलन, नियन्त्रण संव समन्वयन इत्यादि।
जीवन के अनुरक्षण के लिए आवश्यक प्रक्रम :
- पोषण
- श्वसन
- परिवहन
- वृद्धि
- उत्सर्जन
पोषण:- जीव शरीर को वृद्धि एंव विकास के लिए विभिन्न पोषकों, जैसे- कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन्स एवं खनिजों की आवश्यकता होती है। इन्हें सम्मिलित रूप से “भोजन” कहते है। भोजन को अन्तर्ग्रहण करने की प्रक्रिया “पोषण” कहलाती है।
पोषण की आवश्यकत्ता:- शरीर में क्रम की स्थिति के अनुरक्षण तथा ऊर्जा प्राप्ति के लिए होती है।
सजीव अपना भोजन कैसे प्राप्त करते है ?
सभी जीवधारी अपना भोजन समान प्रकार से प्राप्त नहीं करते है। अर्थात इनमें भोजन प्राप्त करने की विभिन्न विधियाँ पायी जाती है। भोजन प्राप्त करने की विधि के आधार पर जीवधारियों को दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
1. स्वपोषी:- ये जीव अकार्बनिक स्रोतों से कार्बन डाई ऑक्साइड तथा जल ग्रहण करके कार्बनिक खाद्य बनाते है। जैसे- सभी हर पौधे, और कुछ जीवाणु |
2. विषमपोषी:- ये जीव जटिल कार्बनिक पदार्थों को ग्रहण करते है जिनके विघटन के लिए जैव- उत्प्रेरकों ( एन्जाइमों) की आवशयकता होती है। जैसे जन्तु एंव कवक
स्वपोषी पोषण:- यह पोषण की वह विधि है जिसमें जिवधारी सरल अकार्बनिक पदार्थो से जटिल कार्बनिक पदार्थों का निर्माण स्वयम करते हैं। सभी हरे पौधे तथा कुछ जीवाणु इसी विधि से पोषण प्राप्त करते है। इनमें कार्बन तथा ऊर्जा की आवश्यकताएँ प्रकाश संश्लेषण द्वारा पूरी होती है।
प्रकाश संश्लेषण:- इस प्रक्रिया में हरे पौधे पर्णहरित की सहायता से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में मृदा से जल तथा वायु से CO2 ग्रहण करके शर्करा (कार्बोहाइड्रेट) का निर्माण करते है। साथ ही ऑक्सीजन उत्पाद के रूप मे मुक्त करते है।
प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया निम्नलिखित तीन चरणों में पूर्ण होती है-
- क्लोरोफिल द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना।
- प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपान्तरित करना तथा जल अणुओं का हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन में अपघटन।
- कार्बन डाई ऑक्साइड का कार्बोहाइड्रेट में अपचयन।
रन्ध्र:- पौधों के हरे भागों की बाह्य त्वचा में असंख्य सूक्ष्म छिद्र उपस्थित होते हैं। जिन्हें रंध्र कहते है।
प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के लिए गैसों का अधिकांश आदान-प्रदान इन्हीं रन्ध्रों के द्वारा होता है। इसके अलावा रन्ध्र पौधो के हरे भागों से जल की अतिरिक्त मात्रा को जलवाष्प के रूप में बाहर निकालने का भी कार्य करते है। इस क्रिया को “वाष्पोत्सर्जन” कहते है।
वाष्पोत्सर्जन तथा गैसों का आदान प्रदान रन्ध्रों के खुलने एवं बन्द होने पर निर्भर करता है। यदि रन्ध्र बन्द होते है तो वाष्पोत्सर्जन एवं गैस विनिमय रुक जाता है।
विषमपोषी पोषण:- पोषण की वह विधि जिसमें जीव विभिन्न रीतियों से पोषण प्राप्त करते है विषमपोषी पोषण कहलाता है।
भोजन के स्वरूप, भोजन की उपलब्धता तथा इसे ग्रहण करने के ढंग आधार पर विषमपोषी पोषण विधियाँ विभिन्न प्रकार की हो सकती है।
शाकाहारी:- गाय, हिरण आदि सीधे ही घास एंव वनस्पतियों को खाते है। इन्हें “शाकाहारी” कहते है।
मांसाहारी:- शेर, बाघ आदि इन शाकाहारी प्राणियों को खाते है। इन्हें “मांसाहारी” कहते है ।
मृतपोषी:- फफूँदी, यीस्ट, मशरूम आदि मृत एवं सड़े गले कार्बनिक पदार्थों से भोजन ग्रहण करते हैं। इन्हें ‘मृतपोषी’ कहते है ।
सर्वाहारी:- बिल्ली, कुत्ता, मनुष्य, आदि वनस्पति उत्पादों तथा जन्तु या इनके उत्पादों को खाते है। “सर्वाहारी” कहलाते है ।
परजीवी:- कुछ जीव ऐसे होते हैं जो अपने पोषक को बिना मारे अपना पोषण प्राप्त करते है, “परजीवी” कहलाते है। जैसे- जूँ, लीच, फीताकृमि, अमरबेल
जीव अपना पोषण कैसे करते हैं?
अमीबा में पोषण:- अमीबा एककोशिकीय प्राणी है जो अपनी कोशिकीय सतह पर बनाए गए अंगुली समान अस्थाई प्रवर्धो द्वारा भोजन कणों को पकड़ता है। ये प्रवर्ध भोजन कण को चारों ओर से घेर लेते है और संगालित होकर खाद्य रिक्तिका बनाते है। इसमें भोजन कणों का पाचन होता है तथा अपशिष्ट पदार्थ पुन: बाहर निकाल दिया जाता है |
पैरामीशियम में पोषण:- पैरामीशियम भी एककोशिकीय प्राणी है किन्तु इसकी कोशिका का आकार निश्चित होता है और एक विशिष्ट स्थान से ही भोजन ग्रहण करता है। इसकी सतह पर उपस्थित पक्ष्माभ भोजन कणों को मुख खाँच तक लाने में सहायता करते है।
मनुष्य में पोषण:-
मानव पाचन तंत्र:- भोजन के अन्तर्ग्रहण से लेकर मल त्याग तक एक तंत्र जिसमें अनेको अंग, ग्रन्थियाँ आदि सम्मिलित है, सामंजस्य के साथ कार्य करते है। यह पाचन तंत्र कहलाता है।
पाचन में भोजन के जटिल पोषक पदार्थो व बड़े अणुओं को विभिन्न रासायनिक क्रियाओं तथा एन्जाइमों की सहायता से सरल, छोटे व घुलनशील पदार्थों में परिवर्तित किया जाता है ।
पाचन तंत्र निम्न दो रचनाओं से मिलकर बना होता है।
- (i) आहार नाल
- (ii) पाचक ग्रन्थियाँ
(i) आहार नाल:- मनुष्य की आहार नाल लम्बी कुण्डलित एंव पेशीय संरचना है। जो मुँह से लेकर गुदा तक फैली रहती है। मनुष्य में आहार नाल लगभग 8 से 10 मीटर लम्बी होती है। आहार नाल के प्रमुख अंग निम्न है ।
- मुख
- ग्रसनी
- ग्रासनली
- आमाशय
- छोटी आँत
- बड़ी आँत
- मुख:- मुख दो गतिशील पेशीय होठो के द्वारा घिरा होता है जिन्हें उपरी होठ व निचला होठ कहते है। मुख मुखगुहा में खुलता है। भोजन को हाथों द्वारा निवाले के रूप में मुख रखा जाता में है।
- ग्रसनी:- ग्रसनी में किसी प्रकार का पाचन नहीं होता है। यह भोजन को ग्रसीका में भेजने का कार्य करती है।
- ग्रासनली:- यह ग्रसनी को अमाश्य से जोड़ने का कार्य करती है और अन्त में आमाशय में खुलती है ।
- आमाशय :- आमाशय भोजन को पचाने का कार्य करते है।
- छोटी आँत:- इस भाग में भोजन का सर्वाधिक पाचन एंव अवशोषण होता है।
- बड़ी आँत:- इसका मुख्य कार्य जल, खनिज लवणों का अवशोषण तथा अपचित भोजन को मल द्वार से उत्सर्जित करना है ।
हमारे आमाशय में अम्ल की भूमिका:- हमारे आमाशय में उपस्थित जठर ग्रन्थियों द्वारा HCl स्रावित होता है। यह आमाशय में अम्लीय माध्यम बनाता है। HCl भोजन के साथ आए जीवाणुओं को नष्ट करके भोजन को सड़ने से बचाता है ।
पाचक एन्जाइमों के कार्य:- एन्जाइम कार्बनिक जैव उत्प्रेरक है जो विभिन्न जैव- रासायनिक क्रियाओं की दर बढ़ा देते है। ये पाचन क्रिया में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन व वसा के पाचन को सुगम बनाते है । मुख गुहा में एमिलेस नामक एन्जाइम कार्बोहाइड्रेट का आंशिक पाचन करके इसे माल्टोज में बदलता है। उदर में लाइपेज नामक एन्जाइम वसा को वसीय अम्ल एंव ग्लिसरॉल में बदलता है।
यकृत के कार्य :
- यकृत पित रस का स्रावण करता है जो आमाशय से आये भोजन को क्षारीय बनाता है।
- यकृत ग्लाइकोजन के रूप में भोजन का संचय करता है।
- यकृत वसा व विटामिन्स का संचय करता है।
- यकृत वसा के इमल्सीकरण में सहायक होता है जो भोजन को सड़ने से रोकता है।
श्वसन:– कार्बनिक भोज्य पदार्थों का ऑक्सीकरण द्वारा विघटन श्वसन कहलाता है। इस क्रिया में ऊर्जा उत्पन्न होती है।
श्वसन के प्रकार
(i) वायवीय श्वसन:- ऑक्सीजन की उपस्थिति में होने वाले श्वसन को वायवीय श्वसन कहते हैं। वायविय श्वसन अधिकांश प्राणियों एंव पादपों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इस प्रक्रिया में ग्लूकोज का पूर्ण होकर CO2, जल तथा मोचित ऊर्जा (ATP) का निर्माण होता है। वायवीय श्वसन में ऊर्जा का मोचन अत्यधिक होता है।
(ii) अवायवीय श्वसन:- ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होने वाले श्वसन को अवायवीय श्वसन कहते है। इसके द्वारा भोज्य पदार्थों का अपूर्ण ऑक्सीकरण होता है और इसमें अपेक्षाकृत कम ऊर्जा उत्पन्न होती है। अवायवीय श्वसन, जो सूक्ष्मजीवियों जैसे-“यीस्ट” में होता है।
ATP:- इसका पूरा नाम “एडिनोसिन ट्राई फास्फेट” है। अधिकांश कोशिकीय प्रक्रमों के लिए ATP ऊर्जा मुद्रा है। श्वसन क्रिया में विमोचित ऊर्जा का उपयोग ADP तथा अकार्बनिक फॉस्फेट से ATP अणु बनाने में किया जाता है |
इन ATP का प्रयोग शरीर की विभिन्न क्रियाओं में किया जाता है। ATP के एक उच्च ऊर्जा बंन्ध के खण्डित होने से 30.5 KJ/mol के तुल्य ऊर्जा मुक्त होती है।
पौधों में श्वसन क्रिया:- पौधों में ऑक्सी तथा अनॉक्सी दोनों प्रकार का श्वसन पाया जाता है। ऑक्सी श्वसन वायु की उपस्थिति में होता है। इसमें रन्ध्रों द्वारा ऑक्सीजनयुक्त वायु उपरन्ध्रीय गुहा में प्रवेश करती है तथा CO2 युक्त वायु बाहर निकलती है। यह प्रक्रिया पौधों में लगातार होती है। जिसमें गैसीय विनिमय दो चरणों में होता है।
- (i) श्वसनी कोशिकाओं तथा अन्तः कोशिकीय वायु के बीच गैसों का विनिमय
- (ii) वातावरणीय वायु तथा अन्तः कोशिकिय वायु में विनिमय
जन्तुओं में श्वसन:- जन्तुओं में पर्यावरण से ऑक्सीजन लेने और उत्पादित CO2 को बाहर निकालने के लिए भिन्न प्रकार के अंगो विकास का हुआ। स्थलीय प्राणी वायु से ऑक्सीजन लेते हैं परन्तु जलीय जीव जल में विलेय ऑक्सीजन का उपयोग करते है। भिन्न-भिन्न प्राणियों में श्वसन के भिन्न-भिन्न तरीके जाते पाए है।
- सरल एककोशिकीय प्राणी जैसे अमीबा में श्वसन कोशिका कला द्वारा गैसो के साधारण विसरण द्वारा होता है।
- कुछ प्राणी, जैसे- केंचुए अपनी त्वचा द्वारा गैसों का विनिमय करते है।
- जलीय जन्तु, जैसे मछली अपने मुँह द्वारा जल लेती है तथा बलपूर्वक इसे क्लोमों तक पहुँचाती है। जहाँ विलेय ऑक्सीजन रुधिर में विसरित हो जाती हैं।
- कीटों में गैसों के आदान-प्रदान के लिए श्वासरन्ध्र तथा श्वासनली पाए जाते है।
- स्थलिय प्राणियों, जैसे- पक्षी, कुत्ता, मनुष्य आदि में श्वसन के लिए फेफड़े पाए जाते हैं।
मनुष्य में श्वसन:- मनुष्य में श्वसन के लिए एक जटिल प्रकार का श्वसन तंत्र पाया जाता है।
मनुष्य का श्वसन तंत्र:- मनुष्य में श्वसन फेफड़ो द्वारा होता है। मनुष्य के श्वसन को फुफ्फुसीय श्वसन कहते है। मनुष्य के श्वसन तन्त्र को दो भागों में बाँटा जा सकता है ।
- श्वसन मार्ग
- फेफड़े
(i) श्वसन मार्ग:- श्वसन मार्ग से होकर वायु फेफड़ों में प्रवेश करती है तथा बाहर जाती है। साँस लेने तथा निकालने की क्रिया श्वासोच्छ्वास कहलाती है।
वायु मार्ग के निम्नलिखित भाग है:-
- नासा मार्ग:- एक जोड़ी बाहा नासाद्वार नासिका के अग्र छोर पर स्थित होते है। नासाद्वार से ग्रसनी तक के पथ को नासामार्ग कहते है। यह नासा पट द्वारा दो भागों में बंटा होता है।
- ग्रसनी:- इस भाग में नासा मार्ग तथा मुख ग्रहिका दोनो खुलते है। ग्रसनी का नासाग्रसनी कण्ठ द्वारा वायुनाल में खुलत्ता है।
- स्वर यन्त्र:- यह श्वासनाल का सबसे उपरी भाग है। स्वर यन्त्र में वाक् रज्जु उपस्थित होते है।
- ट्रेकिया:- वायुनाल ग्रीवा से होकर वक्ष गुहा में प्रवेश करती है। वायुनाल की भिति में उपास्थि के बने C आकार के छल्ले होते हैं। जो इसे पिचकने से रोकते है।
- श्वसनी:– वक्ष गुहा में प्रवेश करने के पश्चात वायुनाल दो श्वसनियों मे विभाजित हो जाती है। प्रत्येक श्वसनि अपनी ओर के फेफड़ों में प्रवेश करती है ।
(ii) फेफड़े:- वक्ष गुहा में दो फेफड़े हृदय के पशर्वों में स्थित होते हैं। प्रत्येक फेफड़ा गुलाबी, कोमल एंव स्पनी रचना है। प्रत्येक फेफड़ा प्लूरल कला से घिरा होता है। फेफड़ों में महिन नलिकाओं का जाल फैला रहता है। इस जाल को श्वसनी वृक्ष कहते हैं।
मनुष्य में श्वासोच्छ्वास:-
मनुष्य में श्वास लेने की क्रियाविधि दो चरणों में पूर्ण होती है:-
(i) निश्वसन:
- वायुमण्डलीय वायु को खींचकर फेफड़ों में भरने की क्रिया निश्वसन कहलाती है।
- इसमें O2 युक्त वायु फेफड़ों में प्रवेश करती है।
- इसमें प्लूरल गुहाओं का आयतन बढ़ जाता है।
(ii) उच्छवसन:-
- फेफड़ो की वायु का बाहर निकाला जाना उच्छवसन कहलाता है।
- इसमें CO2 युक्त वायु फेफड़ों से बाहर निकलती है।
- इसमें प्लूरल गुहाओं का आयतन कम हो जाता है।
वहन
मानव वहन
मानव शरीर में रुधिर वहन के लिए एक तरल माध्यम का कार्य करता है। इसे तरल ‘संयोजी उतक’ भी कहते हैं। रुधिर के प्रमुख दो भाग होते है-
तरल भाग प्लाज्मा- तरल भाग प्लाज्मा तथा इसमें निलंबित रुधिर कोशिकाएँ । प्लाज्मा ररुधिर का 90% भाग बनाता है। लाल रुधिर कणिकाएँ ऑक्सीजन का वहन करती है। इस कार्य में लाल रुधिर कणिकाओं में उपस्थित हीमोग्लोबिन वर्णक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हिमोग्लोबिन की उपस्थिति तथा लाल रुधिर कणिकाओं की अधिकता के कारण रुधिर लाल रंग का होता है।
हृदय
- मनुष्य का हृदय वक्ष गुहा में बाई ओर स्थित होता है। इसका आकार बन्द मुट्ठी के बराबर होता है।
- मनुष्य के हृदय के चार भाग होते हैं। दो आलिन्द तथा दो निलय इन्हें दाँया आलिन्द, बाँया आलिन्द, दाँया निलय तथा बाँया निलय में विभेदित कर सकते है ।
- आलिन्द ऊपर की ओर तथा निलय नीचे की ओर होता है ।
- दाँया आलिन्द दाएँ निलय में तथा बाँया आलिन्द बाएँ निलय में खुलता है। बाएँ आलिन्द तथा बाएँ निलय के बिच द्विवलनी कपाट होता है तथा दाएँ आलिन्द तथा दाँए निलय के बिच त्रिवलनी कपाट होता है।
- दाएँ आलिन्द से महाशिरा आकर मिलती है तथा बाएँ आलिन्द से फुफ्फुस शिरा आकर मिलती है।
परिसंचरण तंत्र:-
मानव के शरीर में उपस्थित ऐसा तन्त्र जो पोषक तत्वों, गैसो, हार्मोन तथा अपशिष्ट पदार्थों का परिवहन करता है। उसे परिसंचरण तंत्र कहते है ।
रक्त:-
रक्त एक प्रकार का तरल संयोजी उतक है जो शरिर के विभिन्न भागों में पोषक तत्वों, गैसों, हार्मोन, तथा अपशिष्ट पदार्थो का परिवहन करता है। उसे रक्त कहते है।
- इसका ph 7.4 होता है।
- इसका निर्माण लाल अस्थि मज्जा में होता है।
- नवजात शिशुओं में रक्त का निर्माण प्लीहा में होता है।
- एक सामान्य व्यक्ति में 5 लीटर रक्त होता है।
RBC (लाल रक्त कणिकाएँ), इरिथ्रोसाइट :
- RBC में हीमोग्लोबिन नामक एक रजंक होता है जिसके कारण RBC का रंग लाल होता है।
- RBC रूधिर कणिकाओं का 99% भाग होती है।
- RBC का निर्माण लाल अस्थि मज्जा में होती है।
- यह केन्द्रक विहिन कणिकाएँ है ।
- इनका जीवनकाल 120 दिन होता है।
- यह ऑक्सीजन का परिवहन करती है ।
WBC ( श्वेत रुधिर कणिकाएँ), ल्यूकोसाइट:
- इसमें केन्द्रक पाया जाता है।
- इसमें हीमोग्लोनिन नहीं पाया जाता है। यह रंगहीन होती है।
- WBC का निर्माण लाल अस्थि मज्जा में होता है।
- WBC शरीर की रोगाणुओं से सुरक्षा करती है। तथा यह प्रतिरक्षा प्रदान करती है।
बिंबाणु ( प्लेटलेटस), थ्रोम्बोसाइट :
- यह केन्द्रक विहिन कोशिकाएं होती है।
- इनका जीवनकाल 10 दिन होता है।
- यह रक्त का थक्का जमाने में मदद करती है।
परिसंचरण तंत्र:- मनुष्य में 02 व C02 पोषक पदार्थो, उत्सर्जी पदार्थो तथा स्त्रावी पदार्थों को शरीर के एक भाग से दूसरे भाग में पहुँचाने तथा लाने वाले तंत्र को ही ररुधिर परिसंचरण तंत्र कहते है।
खुला परिसंचरण तंत्र:- इसमें रूधिर किसी प्रकार की वाहनियों में नहीं बहता है। रूधिर आंतरांगो के आस-पास पाया जाता है। इसमें किसी प्रकार का दाब उत्पन्न नहीं होता है। झींगा, कीट आदि जीवों में खुला परिसंचरण तंत्र पाया जाता है।
बन्द परिसंचरण तंत्र:- रुधिर, महीन, लचीली धमनियों एंव शिराओं में बहता है। रुधिर हृदय से विभिन्न अंगों को पम्प किया जाता है। इसमें रुधिर दाब उत्पन्न होता है । मनुष्य में बन्द परिसंचरण तंत्र माया जाता है।
नलिकाएँ-रुधिर वाहिकाएँ :-
शरीर में रुधिर के वितरण करने एंव एकत्र करने के लिए असंख्य नलिकाएँ पायी जाती है। जिन्हें रुधिर वाहिकाएँ कहते है। ये तीन प्रकार की होती है।
(i) धमनी:
- ये मोटी और लचीली दीवार वाली नलिकाएँ है।
- ये शुद्ध रूधिर को हृदय से शरीर में विभिन्न अगों में पहुँचाती है।
- इनमें वाल्व अनुपस्थित होता है।
- इसमें रुधिर का बहाव तीव्र गति के साथ होता है।
(ii) शिरा :
- ये पतली और दृढ दीवार वाली संकरी नलिकाएं है।
- ये अशुद्ध रुधिर को शरीर के अंगों से हृदय में लाती है।
- इनमें वाल्व उपस्थित होते है ।
- रुधिर का बहाव सामान्य व धीरे-धीरे होता है।
(iii) केशिकाएँ:- किसी अंग या उतक में पहुँचकर धमनी उत्तरोत्तर अत्यधिक पतली वाहिनियाँ बनाती है। जिन्हें केशिकाएं कहते है। केशिका एक मोटी कोशिका होती है। जिससे इनसे होकर उतकों में गैसों व अन्य पदार्थो का विनिमय सरलता से हो सके ।
रक्तदाब
रूधिर वाहिकाओं की भिति के विरुद्ध जो दाब उत्पन्न होता है। उसे रक्त दाब कहते हैं।
यह दाब शिराओं की अपेक्षा धमनियों में बहुत अधिक होता है । रक्तदाब का सबसे पहला परिक्षण ‘स्टिफेन हेल्स’ ने घोड़ो पर किया |
रक्तदाब के प्रकार:
(i) प्रकुंचन दाब:- हृदय के सकुंचन से उत्पन्न दाब के कारण धमनी में रक्त बहता है। इसे प्रकुँचन दाब कहते है।
सामान्य प्रकुँचन दाब लगभग 120mm पारा है।
(ii) अनुशिथिलन दाब:- हृदय में शिथिलन के कारण धमनी में रक्तदाब कम हो जाता है। उसे अनुशिथिलन दाव कहते है।
अनुशिथिलन दाब लगभग 80mm पारा होता है। ।
पादपों में परिवहन:- पौधे पर्यावरण से गैस के रूप में कार्बन डाई ऑक्साइड जैसे पदार्थ लेते है। फिर भी उन्हें नाइट्रोजन, फास्फॉरस, लौह, कैल्सियम, मैग्नीशियम आदि अनेक पदार्थों की आवश्यकता विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थो, पोषक पदार्थों आदि के निर्माण के लिए होती है। ऐसे अनेक पदार्थ मृदा में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध में रहते हैं। ये पदार्थ पौधों की जड़ों द्वारा अवशोषित किए जाते हैं।
पादप परिवहन तंत्र दो प्रकार के जटिल उतको से मिलकर बना होता है ।
(i) जाइलम:- यह उतक तंत्र जड़ों द्वारा अवशोषित जल एवं खनिजों लवणों को पौधे के विभिन्न भागों जैसे- तला, पतियों, व पुष्पों आदि में पहुँचाता है।
(ii) फ्लोएम:- यह उनक तंत्र पतियों में निर्मित खाद्य पदार्थ का स्थानान्तरण पौधे के विभिन्न भागों एंव जड़ों में करता है ।
जल का परिवहन:- मृदा से जल का अवशोषण मूल रोमों द्वारा होता है। मूल रोम तथा मृदा जल के बीच आयन सान्द्रण में अन्तर होने के कारण जल मूलरोमो में प्रवेश करता है। यह जल क्रमिक रूप से जड़ की कोशिकाओं में विसरित होता हुआ जड़ के जाइलम ऊतक तक पहुँचता है।
भोजन तथा दूसरे पदार्थों का स्थानान्तरण:- प्रकाश संश्लेषण के विलेय उत्पादों का वहन स्थानान्तरण कहलाता है और यह वहन फ्लोएम नामक उतक तंत्र द्वारा होता है। फ्लोएम इन उत्पादों के अलावा अमीनों अम्ल तथा अन्य पदार्थों का परिवहन भी करता है। भोजन तथा अन्य पदार्थों का स्थानान्तरण ऊतक की सहायक कोशिकाओं की सहायता से चालनी नलिका की उपरिमुखी तथा अधोमुखी दोनों दिशाओं में होता है।
उत्सर्जन:- शरीर में होने वाली विभिन्न उपापचयी क्रियाओं में उत्पन्न नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थों को बाहर निकाला जाना “उत्सर्जन ” कहलाता है।
मानव में उत्सर्जन:- उत्सर्जन अंगों को सामुहिक रूप से उत्सर्जन तंत्र कहा जाता है।
मनुष्य में निम्न उत्सर्जन अंग पाये जाते है
(i) वृक्क (2) मूत्र वाहिनियाँ (3) मूत्राशय (4) मूत्र मार्ग
(i) वृक्क:- मनुष्य में एक जोड़ी वृक्क पाए जाते है। यह दोनो वृक्क उदर में कशेरन्क दण्ड के दोनों ओर स्थित है। वृक्क गहरे भूरे एवं सेम के बीज की आकृति के होते है। इनका बाहरी भाग उभरा हुआ तथा भीतरी भाग दबा हुआ होता है। जिनके मध्य में छोटा सा एक गड्डा होता है। गड्डे को “हाइलम” कहते हैं। हाइलम भाग से वृक्क धमनी प्रवेश करती है और वृक्क शिरा एंव मूत्र वाहिनी बाहर निकलती है।
(2) मूत्र वाहिनियाँ:- ये वृक्क से निकलकर मूत्राशय तक जाती है। इनकी भिति मोटी होती है तथा गुहा संकरी होती है। इनकी भिति में क्रमानुकुंचन पाया जाता है जिसके फलस्वरूप मूत्र आगे की ओर बढ़ता है ।
(3) मूत्राशय:- यह उदर के पिछले भाग में स्थित होता है। मूत्राशय में मूत्रवाहिनियाँ आकर खुलती है व इसमें मूत्र को संग्रहित किया जाता है। इसलिए इसे ‘मूत्र संचय आशय’ कहते है।
(4) मूत्र मार्ग:- मूत्राशय का पाश्च छोर संकरा होकर एक पतली नलिका में परिवर्तित हो जाता है। जिसे ‘मूत्र मार्ग’ कहते है। मूत्र के निषकासन की क्रिया को ‘मूत्रण ‘ कहा जाता है।
वृक्काणु या नेफ्रॉन:-
प्रत्येक वृक्क में लगभग दस लाख अति सूक्ष्म नलिकाएँ होती है। जिन्हें वृक्क नलिकाएँ अथवा नेफ्रॉन कहते हैं। प्रत्येक नेफ्रॉन एक उत्सर्जन की इकाई होती है। नेफ्रॉन का प्रारम्भिक भाग एक प्याले के समान होता है जिसे बोमन सम्पुट कहते है। बोमन सम्पुट के प्यालेनुमा खाँचे में रक्त की नलियों का गुच्छा होता है। जिसे ग्लोमेरूलस कहते हैं। ग्लोगेकलस एवं बोमन सम्पुट को मिलाकर “मैलपीगी कोश” कहते हैं।
कृत्रिम वृक्क (अपोहन):- उत्तरजीविता के लिए वृक्क जैव अंग है। कई कारक जैसे संक्रमण, आघात या वृक्क में सीमित रुधिर प्रवाह, वृक्क की क्रियाशीलता को कम कर देते हैं। यह शरीर में विषैले अपशिष्ट को संचित कराता है। जिसे मृत्यु भी हो सकती है। एक कृत्रिम वृक्क नाइट्रोजनी अपशीष्ट उत्पादों को रुधीर से अपोहन द्वारा निकालने की एक युक्ति है।
पादपों में उत्सर्जन:- पादपों के मुख्य उत्सर्जी उत्पाद O2 तथा CO2 है। जिन्हें क्रमश: श्वसन तथा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में प्रयुक्त या बाहर उत्सर्जित किया जाता है। पादपों के बहुत से ऊतकों में मृत कोशिकाएँ पाई जाती है। कुछ अपशिष्ट उत्पाद जैसे- रेजीन, गोंद, आदि पुराने जाइलम में संचित रहते हैं।
Chapter 1: रासायनिक अभिक्रियाएँ एवं समीकरण
Chapter 2: अम्ल, क्षारक एवं लवण
Chapter 3: धातु एवं अधातु
Chapter 4: कार्बन एवं उसके यौगिक
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