यहाँ हमने गुप्त वंश नोट्स(Gupt Vansh in Hindi) हिन्दी मे दिये है। गुप्त वंश नोट्स(Gupt Vansh in Hindi) आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।
Gupt Vansh in Hindi । गुप्त वंश नोट्स
गुप्तों के उदय के पूर्व भारत की राजनीतिक स्थिति :-
- कुषाणों के अंतिम राजा वासुदेव की मृत्यु के बाद तथा गुप्त वंश के शुरू होने के बीच का काल विकेंद्रीकरण एवं विभाजन का काल माना जाता है। शासन की कोई सार्वभौम शक्ति नहीं थी। पूरा देश छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त थे जो परस्पर एक दूसरे से लड़ाई करते रहते थे।
- कुषाणों के बाद भारत का एक विशाल सम्राज्य मुरुण्डों के हाथों में आया जिन्होंने 250ई. तक शासन किया, इसके बाद ही गुप्त वंश का शासन शुरू हुआ होगा गुप्तों की उत्पत्ति का काल भारतीय इतिहास में एक बहुत बड़ा विवादास्पद प्रश्न रहा है।
- सम्भवतः गुप्त लोग कुषाणों के सामन्त रहे होंगे।
- “वज्जिका” द्वारा लिखे ग्रन्थ “कृतिकौमुदि” में गुप्तों को “कारस्कर कहा गया है।
- चंद्रगोविन के व्याकरण नामक ग्रन्थ में गुप्तों को जाट या जर्ट कहा गया है।
- गुप्त वंशावली के बारे में हमे:- समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख, कुमार गुप्त का विलसड स्तम्भ लेख, तथा स्कन्दगुप्त का भीतरी स्तम्भ लेख से पता चलता है।
- इन अभिलेखों के आधार पर ही “श्री गुप्त” को गुप्त वंश का संस्थापक माना जाता है। परन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि वह राजा श्रीगुप्त थे या महाराजा गुप्त थे क्योंकि इस समय के मील दो अलग-अलग मुहरों पर दो नाम छपे थे (1)गुप्तस्य (2) श्रीगुप्तस्य
- गुप्त वंश का दूसरा शासक घटोत्कक्ष को माना जाता है। परंतु इन दोनों राजाओं के बारे में कोई उल्लेखनीय इतिहास नहीं मिलता हैं।
गुप्त साम्राज्य
मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद बहुत समय तक भारत एक शासन सूत्र विघटन को खत्म करने के लिए तीसरी शताब्दी में भारत के तीन कोने से तीन नए राजवंशों का उदय हुआ।
- मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग से नाग शक्ति
- दक्कन में वाकाटक
- पूर्वी भारत में “गुप्त वंश”
- गुप्त वंश की स्थापना 275ई. में “श्रीगुप्त” ने की थी।
- इसकी प्रारंभिक राजधानी “पाटलिपुत्र” तथा द्वितीय राजधानी “उज्जैन” थी।
- श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी घटोत्याध शासक बना
चंन्द्रगुप्त प्रथम (319ई-325 ई.)
- चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही गुप्त वंश को एक साम्राज्य की प्रतिष्ठा प्रदान की।
- इसने महाराजाधिराज” की भी उपाधि धारण की थी।
- चन्द्रगुप्त प्रथम ने राजय्यारोहन के उपलक्ष्य में 319-20ई. में गुप्त-संवत” चलाया था।
- यह प्रथम शासक था जिसने पाने पत्नी वैशाली की लिच्छवि राजकुमारी “कुमार देवी” के नाम और चित्र से युक्त सिक्के चलाये थे। इन सिक्कों पर चन्द्रगुप्त प्रथम के भी नाम एवं चित्र अंकित थे।
- इसने ही सर्वप्रथम चांदी के सिक्कों का प्रचलन करवाया था।
समुद्रगुप्त (325ई. 375 ई)
- ये चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र थे।
- इनके समय में गुप्त वंश का सबसे अधिक विस्तार हुआ था।
- समुद्रगुप्त के सामरिक विजयों का विवरण हरिकेश कृत “प्रयाग प्रशस्ति” में है।
- समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के नौ शासकों को पराजित किया तथा उत्तर भारत पर प्रत्यक्ष शासन भी किया।
- समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के “बारह शासक” को पराजित किया था।
- समुद्रगुप्त की दक्षिणापथ विजय को रायचौधरी ने “धर्मविजय” की संज्ञा प्रदान की है।
- समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ भी करवाया था।
- समुद्रगुप्त के उत्तरी भारत में अपनायी गयी नीति को “प्रसभोदरन” तथा दक्षिणापथ में अपनाई गयी नीति को “ग्रहण-मोक्षानुग्रह” कहा है।
- समुद्रगुप्त को “कविराज” की भी उपाधि मिली थी।
- इन्हें “धर्म प्रचार बंधु” की भी उपाधि मिली थी। इसका उल्लेख इलाहाबाद के स्तम्भ लेख में मिलता है।
- समुद्रगुप्त ने महान बौद्ध भिक्षु “वसुबन्धु” को सांरक्षण दिया था।
- विंसेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को “भारत का नेपोलियन” कहा है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय:— 375 ई.– 415 ई.
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चोटी पर पहुंचा।
- उसने वैवाहिक संबंध तथा युद्ध विजय दोनों नीतियों को अपना कर साम्राज्य विस्तार किया।
- इसने शकों को हराने के उपलक्ष में “विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। इसके अलावा भी ये “विक्रमांक” और “परमभागवत” की उपाधि धारण की थी।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के दिग्विजयों का उल्लेख उसके “उदयगिरि गुहालेख में मिलता है।
- इसके समय में पाटलिपुत्र एवं उज्जैयिनी प्रमुख शिक्षा के केंद्र थे।
- उज्जैयिनी इसकी दूसरी राजधानी थी।
- इनके दरबार में नौ विद्वानों की एक मंडली थी जिसे “नवरत्न” कहा जाता था। ये नौरत्न निम्न थे:-
1.कालिदास 2.धन्वन्तरि 3.क्षपणक 4.अमर सिंह 5.शंकु 6.वैताल भट्ट 7.वारामिहिर 8.वररुचि 9.घटकर्पर
- इसके शासनकाल में ही चीनी यात्री “फाहयान” (399-414 ई.) भारत आया था।
- इनका काल ब्राहमण धर्म के चरमोत्कर्ष का काल था।
- इसने नागवंश की राजकुमारी “कुबेरनागा” से विवाह किया जिससे इन्हें “प्रभावती गुप्त” नामक पुत्री प्राप्त हुई थी।
- इन्होंने “ध्रुव स्वामिनी / (ध्रुव देवी)” से भी विवाह किया जिनसे इन्हें एक पुत्र “कुमार गुप्त प्रथम प्राप्त हुआ जो आगे चलकर गुप्त साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना।
- प्रभावती गुप्त का विवाह उज्जैन के “वाकाटक” वंश के शासक “रुद्रसेन द्वितीय” के साथ हुआ, परन्तु रुद्रसेन द्वितीय की अचानक मृत्यु हो गयी जिसके कारण चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को गुप्त साम्राज्य में मिलाकर इसे गुप्त साम्राज्य की दूसरी राजधानी बना दी।
- इसने दिल्ली में “लौह स्तम्भ” बनवाया जो आज भी कुतुबमीनार के सामने स्थित है।
कुमार गुप्त प्रथम:-
- कुमारगुप्त प्रथम की शासन अवधि 415 ई. से है, जिसका उल्लेख “विलसड अभिलेख” में मिलता है।
- गुप्त वंश की कुमार गुप्त तक की वंशावली “विलसड अभिलेख” में ही मिलता है।
- गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख “कुमार गुप्त प्रथम” के ही मिलते हैं।
- कुमार गुप्त ने ही “नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई थी। जिसे “ऑक्सफोर्ड ऑफ महायान बौद्ध” भी कहा जाता है।
- कुमार गुप्त ने “महेन्द्रादित्य, श्रीमहेन्द्र तथा अश्वमेध महेंद्र की भी उपाधि धारण की थी।
स्कन्दगुप्त ( 455ई-467ई.)
- कुमार गुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद स्कन्दगुप्त शासक बना। इसके शासन संभालते ही हूणों का आक्रमण हुआ। इस आक्रमण में हूणों की हार हुई थी।
- हूणों को पराजित करने की उपलक्ष में स्कन्दगुप्त ने “विक्रमादित्य” की उपाधि धारण की थी।
- स्कन्दगुप्त ने गिरनार पर्वत के पास स्थित “सुदर्शन झील” का पुनरुद्धार करवाया जिसका निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य ने करवाया था। इसकी मरम्मत अशीक एवं रुद्रदामन भी करा चुके हैं।
- प्रशासनिक सुविधा के लिए स्कन्दगुप्त ने अपनी राजधानी को “अयोध्या” स्थान्तरित किया था।
- गुप्त काल का अंतिम महान शासक कुमार गुप्त द्वितीय” था।
पतन
- गुप्त वंश के पतन के कारणों में हूणों का आक्रमण एक विशिष्ट कारण रहा।
- “तोरमाण” हूणों का प्रथम शासक था। मध्यप्रदेश के “ऐरण” अभिलेख में “तोरमाण” का उल्लेख मिलता है।
- “तोरमाण के बाद उसके पुत्र “मिहिरकुल” ने भी भारत के अन्तरिक भागों पर आक्रमण किये जिसका उल्लेख हमे ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख में मिलता है।
- गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद गुप्त प्रांतों में सर्वप्रथम जूनागढ़ (सौराष्ट्र) प्रान्त स्वतन्त्र हुआ था।
गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था
- गुप्तकालीन राजनीतिक पद वंशानुगत था।
- इस काल से ही विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ने लगी थी।
- राजकार्य में सम्राट को सहायता प्रदान करने के लिए मंत्री होते थे।
- मंत्रियों का चयन सम्राट द्वारा उनकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर राजकुमारी, सामंती, और उच्च अधिकारियों के बीच से होता था इनका पद भी वंशानुगत होता था।
- केंद्रीय प्रशासन अनेक विभागों में विभक्त था जो भिन्न भिन्न नामों से जाने जाते थे।
- महादलाधिकृत – सैना का सेनापति
- महादण्डनायक – न्यायाधीश
- सन्धि-विहिक – युद्ध एवं सन्धि मंत्री
- दंडपाशिक (SP) -पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी
- विनय स्थिति संस्थापक – शिक्षा अधिकारी
- भण्डागाराधिकृत – राजकोष का अधिकारी
- महापक्षपटलिक – लेखा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी
- युक्त पुरुष – युद्ध में प्राप्त या जोती गयी संपत्ति का लेखा जोखा करना।
- महाप्रतिहार – राजमहलों से संबंधित विषयों की देखरेख करने वाला अधिकारी।
- प्रांतीय शासकों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी।
- सीमांत प्रदेशों के शासक “गोप्ता” कहलाते थे।
- जिलों को “विषय” कहा जाता था। तथा विषय का सर्वोच्च अधिकारी विषयपति” कहलाते थे।
- विषयपति का प्रधान कार्यालय अधिष्ठान कहलाता था।
- गुप्त प्रशासन में स्थानीय शासन दो भागों में विभक्त था।
- नगर प्रशासन
- ग्राम प्रशासन
- नगर परिषद के प्रमुख को “नगरपति” कहा जाता था।
- नगर प्रशासन के प्रमुख आधिकारी को पुरपाल/नगररक्षक / दागीक” कहा जाता था।
- प्रत्येक विषय (जिले) के अंतर्गत कई “ग्राम” होते थे। बाम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। इसका सर्वोच्च अधिकारी “यामिक/ग्रामपति/महत्तर होता था।
- ग्रामिक की सहायता के लिए एक ग्राम पंचायत होती थी जो अपने अधिकार क्षेत्र में स्वतंत्र थी।
- गुप्तकाल में न्याय व्यवस्था जबरदस्त थी।
- सर्वोच्च न्यायपति स्वयं सम्राट होते थे।
- न्यायालय चार वर्गों में विभक्त था।
- राजा का न्यायलय
- पुग
- श्रेणी
- कुल
- पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून भली-भांति इसी काल में परिभाषित की गयी थी।
- राजा के पास स्थायी सेना थी सेना के चार अंग थे:- 1. पटाति (पैदल सेना) 2. रथरोहि सेना (रथ सेना) 3. अश्वरोही (घुड़सवार सेना) 4. गज सेना(हाथी सेना)
- गजसेना को “कटुक”, अखरोही सेना के प्रमुख को अटाश्वपति तथा साधारण सैनिक के प्रमुख को “चाट” कहा जाता था
- गुप्तचर को “दूत” तथा पुलिस कर्मचारी को “भट या भाट” कहा जाता था।
गुप्तकालीन सामाजिक जीवन:-
- गुप्तकालीन समाज परंपरागत चार वर्णों में विभक्त था।
- समाज में ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान था।
- ब्राह्मणों के मुख्य कार्य अध्ययन अध्यापन, यज्ञ करना, दान देना, एवं दान लेना था।
- वर्णों का आधार गुण और कर्म न होकर “जन्म” था।
- न्याय सहिंता के अनुसार ब्राहमण की परीक्षा “तुला” से, क्षत्रिय की “अग्नि” से, वैश्य की “जल” से तथा शुद्र की “विष” से ली जाती थी।
- “मयूरशर्मन” नामक एक ब्राह्मण राजा ने अपने विजयों के उपलक्ष में 18 बार अश्वमेघ यज्ञ करवाया था।
- इस काल मै एक नए वर्ण का उल्लेख मिलता है जिसे “चांडाल” कहा जाता था। चांडाल चारों वर्णों से नीचा था। ये समाज से बाहर रहते थे। ये मुख्यतः मछली मारने, शिकार करने और मांस बेचने का कार्य करते थे।
- “कायस्त” जाति का जन्म भी गुप्त काल में ही हुआ, ये लेखा-जोखा का कारी करते थे। इन्हें “प्रथम कायस्त” या “ज्येष्ठ कायस्त” भी कहा जाता था।
- गुप्तकाल मे स्त्रियों की दशा दयनीय हो गयी थी। समाज में दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह प्रथा नहीं थी पर सती प्रथा की शुरुआत हो चुकी थी।
- विधवाओं की स्थिति भी सोचनीय थी।
गुप्तकालीन आर्थिक स्थिति :-
- इस काल में “कृषि लोगों का मुख्य व्यवसाय था। कृषि वर्षा पर निर्भर होती थी।
- चावल, जौ, ईख तथा धान मुख्य फसल थी।
- उपयोगिता के अनुसार खेतों को 5 भागों में बाँटा गया था।
- क्षेत्र- खेती करने योग्य भूमि
- वास्तु:- निवास करने योग्य भूमि
- खिल जो भूमि जोती नहीं जाती थी।
- अप्रहत:- बिना जोती हुई जंगल भूमि
- चारागाह- पशुओं के चारा योग्य भूमि
- कपड़े का निर्माण करना इस काल का सर्वप्रमुख उद्योग था।
- व्यापारियों के एक ही जाति के समूह को “श्रेणी” कहा जाता तथा विभिन्न जातियों के व्यापारियों के समूह को “पुग” कहा जाता था।
- व्यापारियों की एक समिति होती थी जिसे “निगम” कहा जाता था।
- निगम का प्रधान “श्रेष्ठी” कहलाता था।
- व्यापारियों के समूह को “सार्थ” तथा उनके नेता को “सार्यवाह” कहा जाता था।
- सबसे अधिक सोने के सिक्के गुप्तकाल में ही चलाये गए थे।
- सोने के सिक्कों को “दिनार” कहा जाता था।
- साधारण जनता रोज के व्यायापर वस्तु विनिमय प्रणाली एवं कौड़ियों से करती थी।
- गुप्तकाल में बंगाल में “ताम्रलिप्ति” एक मुख्य बंदरगाह था जहां से दक्षिण पूर्व एशिया के साथ व्यापार होता था।
- पश्चिमी भारत का प्रमुख बंदरगाह भृगुकच्छ (भड़ौच था जहां से पश्चिमी देशों के साथ व्यापार होता था।
- सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र “उज्जैन” था।
गुप्तकालीन धार्मिक स्थिति:-
- गुप्तकाल ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल माना जाता है।
- इस काल में हिन्दू धर्म के तीन महत्वपूर्ण पक्ष विकसित हुए।
- मूर्ति पूजा उपासना का केंद्र बन गया।
- यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया।
- वैष्णव तथा शैव धर्मों का समन्वय हुआ।
- वैष्णव और शैव हिन्दू धर्म की उत्पत्ति का महत्वपूर्ण अवशेष देवगढ़ (झांसी) का दशावतार मंदिर है।
- गुप्तकाल में अनेक शैव मन्दिरों का भी निर्माण हुआ। शिव की मूर्ति दो प्रकार से बनाई जाती थी।
- मानव आकार में
- लिंग के रूप में
- शिव-पार्वती की संयुक्त मूर्तिया इसी काल में बननी शुरू हुई थी।
- त्रिमूर्ति के अंतर्गत “ब्रह्मा-विषय-महेश की पूजा शुरु हुई।
- इस काल में अन्य देवताओं की तुलना में “देवी शक्ति” का वैभव बहुत बढ़ गया था।
- इस काल में बौद्ध धर्म भी अपने स्वभाविक रूप में बढ़ा
- फाहयान के अनुसार इस काल में “कश्मीर, अफगानिस्तान एवं पंजाब बौद्ध धर्म के कैद थे।
- नालन्दा में प्रसिद्ध बौद्ध विहार की स्थापना इसी काल में हुई थी।
- “योगाचार दर्शन” का गुप्तकाल में अत्यधिक विकास हुआ।
- जैन धर्म की दवितीय और अंतिम बैठक इसी काल में गुजरात के “वली” नामक स्थान में हुई थी।
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