यहाँ हमने Class 12 Biology Chapter 15 Notes in Hindi दिये है। Class 12 Biology Chapter 15 Notes in Hindi आपको अध्याय को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे और आपकी परीक्षा की तैयारी में सहायक होंगे।
Class 12 Biology Chapter 15 Notes in Hindi
जैव विविधता:-
- पृथ्वी पर पाये जाने वाले विभिन्न जीव जातियो को जैव विविधता कहते है।
- जैव विविधता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग रोजन नामक वैज्ञानिक ने किया था।
- एडवर्ड विल्सन को जैव विविधता का जनक कहते है।
जैव विविधता के प्रकार :-
जैव विविधता तीन प्रकार का होता है:-
(i) आनुवंशिक विविधता:- एक ही जाति मे पाई जाने वाली विभिन्नता को आनुवंशिक विविधता कहते है।
उदाहरण:- सर्पगन्धा (राऊवोल्फीया वोमिटोरिया) की विभिन्न किस्मे हिमालय मे मिलती है। इसकी भिन्न भिन्न किस्मो से भिन्न भिन्न सान्द्रता वाले रेसरपिन नामक रसायन प्राप्त होते है, जो औषधीय महत्व का होता है।
इसी प्रकार भारत मे चावल की लगभग 50,000 से 200,000 एवं आम की लगभग 1000 से अधिक जातियाँ पाई जाती है। आनुवंशिक विविधता जीन मे विविधता के कारण पैदा होती है।
(ii) जातीय विविधता:- किसी जाति की अलग-अलग किस्मो के बीच पायी जाने वाली विविधता को जातीय विविधता कहते है। जैसे- पश्चिमी घाट मे उभयचरो की अधिक जातियाँ पायी जाती है, जबकि पूर्वी घाट पर कम।
(iii) समुदाय एवं पारिस्थितिकीय विविधता:- पारिस्थितिकीय स्तर पर पायी जाने वाली विविधता को पारिस्थितिकीय विविधता कहते है। जैसे- रेगिस्तान, वर्षा वन, मैग्रोव वन, पतझड़ वन आदि ।
पारिस्थितिकीय विविधता को तीन भागो मे वर्गीकृत किया जाता है:-
- (a) एल्फा विविधता:- एक ही समुदाय या आवास मे पाये जाने वाले जीवो मे विविधता को एल्फा विविधता कहते है। जैसे – एक छोटे वन या उद्यान मे पादपो मे विविधता |
- (b) बीटा विविधता:- अलग- अलग समुदाय या आवासो मे पाये जाने वाले जीवो मे विविधता को बीटा विविधता कहते है। जैसे- स्थल व जल तंत्रो मे पायी जाने वाली जातियो की विभिन्नता ।
- (c) गामा विविधता:- एक ही क्षेत्र मे अलग-अलग आवासो मे पाये जाने वाले जीवो मे विविधता को गामा विविधता कहते है।
पृथ्वी पर तथा भारत मे जाति विविधता
- वर्तमान में प्रत्येक वर्ष लगभग 15,000 नयी जातियाँ खोजी जा रही है।
- IUCN (International Union for Conservation of Nature & Natural Resources, 2004) के अनुसार अब तक दर्शायी गयी जन्तु व पादपों की कुल संख्या 1.5 मिलियन (15 लाख) जातियाँ है।
- वर्तमान मे पृथ्वी पर अभी आकलित जातियो मे से 70% से अधिक जन्तु है।
- यद्यपि भारत का भूमि क्षेत्र विश्व का केवल 2.4 प्रतिशत है, लेकिन इसकी वैश्विक जाति विविधता 8.1 प्रतिशत है।
विश्व मे खोजी गई जातियो का आकलन
- विश्व मे कुल जातियो का 70% भाग – जन्तु जातियाँ व 22% भाग पादप जातियाँ (शैवाल, कवक, ब्रायोफाइट, आवृतबीजी पादप व अनावृतबीजी पादप) तथा शेष 8% अन्य जीव होते हैं।
- जन्तुओ की कुल संख्या का 70% से ज्यादा भाग कीट निर्मित अन्य करते हैं।
विश्व मे अभी तक पहचानी गई जातियो की सारणी
- उच्च पादप:- 2,70000
- कशेरुकी:- 53, 239
- मछलियाँ:- 26,959
- उभयचर:- 4, 780
- सरीसृप:- 7,150
- पक्षी:- 9,700
- स्तनधारी:- 4,650
- शैवाल:- 40000
- कवक:- 72000
- जीवाणु – 40000 (नीलहरित शैवाल (सायनोबैक्टीरिया) सहित)
- विषाणु:- 1550
- कस्टेशियन:- 43000
- मोलस्का:- 70000
- कृमि:- 25000
- प्रोटोजोआ:- 40000
- अन्य:- 1,10000
- कीट:- 10, 25000
भारत मे जैव विविधता
- यद्यपि भारत का क्षेत्रफल विश्व का केवल 2.4% है, किन्तु इसमे जैव-विविधता विश्व की 8.1% है। जिसके कारण महाविविधता वाले 12 देशो मे भारत शामिल है।
- राबर्ट मेय के आंकलन को यदि सही माना जाए तो भारत मे अभी 100,000 से ज्यादा चादप, 3,00,000 से ज्यादा जन्तु जातियो की खोज होना बाकी है।
जैव विविधता के प्रतिरूप:-
जैव विविधता पूरे विश्व मे एक जैसी नही होती है। इसका प्रतिरूप निम्नलिखित है:-
(क) अक्षांशीय प्रवणता
सामान्यतया भू- मध्य रेखा से ध्रुवो की तरफ जाने पर जाति विविधता घटती जाती है। कुछ अपवादो को छोड़कर उष्णकटिबन्धीय क्षेत्री मे अक्षांशीय सीमा 23 ½ उत्तर से दक्षिण तक मे शीतोष्ण या ध्रुवीय प्रदेशो से अधिक जातियाँ पाई जाती है ‘
दक्षिणी अमेरिका के अमेजन नदी के क्षेत्र में मिलने वाली उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वनो मे पृथ्वी की सबसे ज्यादा जैव विविधता दिखाई देती है।
जैव विविधता को सारणी द्वारा दर्शाया गया है:-
- पादप:- 40000
- मछलिया: – 30000
- स्तनधारी:- 427
- पक्षी:- 1300
- उभयचर:- 378
- अकेशेरुक:- 12,500
लगभग 2,00,000 कीटो की जातियो की खोज होना अभी भी बाकी है।
क्यो उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में जैव विविधता अधिक होती है?
- अधिक उत्पादकता:- इस क्षेत्र मे सौर ऊर्जा अत्यधिक मात्रा मे पायी जाती है इसलिए पौधो मे प्रकाश – संश्लेषण ज्यादा होता है, जिसके कारण इन क्नो की उत्पादकता भी ज्यादा होती है। यही कारण है कि जैव विविधता भी ज्यादा होती है।
2. स्थिर पर्यावरण:- उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र का पर्यावरण निरन्तर एक समान बना रहता है। यहाँ मौसम मे बदलाव कम होते है। इसलिए इसे स्थिर पर्यावरण कहा जाता है।
स्थिर पर्यावरण जीवो को जल्दी से वातावरण के अनुकूलित बना देता है। यह अनुकूलता जैव विविधता को बढ़ावा देने का कार्य – करती है।
- कोई विपत्ति नही:- शीतोष्ण क्षेत्रो में समय-समय पर बर्फ का हिमआच्छान्दन होता है, जो जीवो के लिए अच्छा नहीं माना जाता है और जीवो की संख्या को कम कर देता है। इसके कारण वहाँ जैव विविधता भी कम पायी जाती है।
(ख) तुंगीय प्रवणता:-
अक्षांशीय प्रवणता की तरह मैदानी क्षेत्रो से पर्वतीय क्षेत्रो की ओर जाने पर जातीय विविधता कम हो जाती है क्योंकि 1000 मीटर की ऊँचाई पर सामान्यता तापमान मे 5-6oC की कमी हो जाती है।
(ग) जातीय क्षेत्र सम्बन्ध:-
जर्मनी के विख्यात प्रकृतिविद अलेक्ज़ेंडर वॉन हम्बोल्ट ने दक्षिणी अमेरिका के वनो मे बहुत समय तक अध्ययन किया। उन्होने बताया कि किसी भी दिए गए क्षेत्र की जातीय समृद्धि अन्वेषण क्षेत्र के साथ केवल एक सीमा तक ही बढ़ सकती है। इनके अनुसार जातीय समृद्धि एवं क्षेत्र के बीच सम्बन्ध एक आयताकार अतिपरवलय के रूप में होता है।
जातीय विविधता का पारितन्त्र मे महत्व
जातियो की संख्या पारितंत्र के लिए अत्यधिक म्हत्वपूर्ण होती है। इसके कुछ महत्त्व निम्नलिखित प्रकार से है:-
(1) अधिक उत्पादकता:- प्रकृतिविज्ञानी डेविड टिलमैन ने अपने प्रयोगो द्वारा साबित किया कि किसी क्षेत्र में जितनी अधिक जातियाँ उपस्थित होती है उस क्षेत्र की उत्पादकता भी उतनी ही ज्यादा होती है, और यदि जातियो की संख्या रुक जाये तो उस क्षेत्र के जैव भार मे भी ज्यादा बदलाव नहीं होता है।
(2) स्थिरता:- टिलमैन के अनुसार यदि जातीय विविधता अत्यधिक पायी जाती है तो वह पारितंत्र लम्बे समय तक स्थायी होता है और अधिक समय तक स्थिरता प्रदान करता है।
(3) पारिस्थितिक स्वस्थता:- खाद्य श्रृंखला जाति विविधता वाले पारितंत्र में शाखित होती है और जीव एक दूसरे पर ज्यादा निर्भर होते है। प्रत्येक जीव का कार्य खाद्य श्रृंखला मे आवश्यक होता है। मनुष्य भी इन खाद्य पृखलाओ का एक स्तर होता है और यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इनसे प्रभावित रहता है। यदि खाद्य श्रृंखला की एक भी कडी समाप्त हो जाती है तो उससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी जातियो पर भी प्रभाव पड़ता है और पारितंत्र का संतुलन बिगड जाता है।
जैव विविधता की क्षति
पृथ्वी के जैव सम्पदा भण्डार मे तेजी से कमी हो रही है। इसके लिए IUCN की लाल सूची के साक्ष्यो के अनुसार पिछले 500 वर्षो मे 784 जातियाँ विलुप्त हो गयी है, जो निम्नलिखित प्रकार है:-
- (1) कशेकक 338
- (2) अकशेरूक 359
- (3) पादप 87
आंकड़ो के अनुसार विश्व की 15,500 से भी अधिक जातियाँ विलुप्त के कगार पर है।
नई लुप्त जातियों में –
- मारीशस की डोडो
- ऑस्ट्रेलिया की भेडिया थाइलेसिन
- अफ्रीका की जेब्रा क्वैगा
- रूस की स्टेलर समुद्री गाय
- पक्षी तथा बाघो की तीन उपजातियाँ कैस्पियन, बाली एवं जावा।
पिछले 20 वर्षो मे लगभग 27 जातियाँ विलुप्त हो चुकी है। सम्पूर्ण विश्व मे पादपो एवं जन्तुओ के लगभग 15,500 जातियो पर विलुप्त होने का खतरा है। इनमे 32% उभयचर, 23% स्तनधारी, 22% पक्षी एवं 31% आवृतबीजी है।
जैव विविधता की क्षति के कारण
जैव विविधता की क्षति के मुख कारक निम्न है:-
(1) आवासों की क्षति व उनका विखण्डित होना:– प्राकृतिक आवासो का विनाश जैव विविधता के लिए भयंकर संकट है। जीव जातियो के आवासो की हानि मनुष्य की अनेक क्रियाओ द्वारा हुई है ।
(2) अत्यधिक दोहन:- मनुष्य सदैव भोजन, आवास, लकड़ी व दवाओं के लिए प्रकृति पर निर्भर करता है लेकिन जब आवश्यकता बढ़ जाती है तो इस प्राकृतिक सम्पदा का अति दोहन प्रारम्भ हो जाता है जिससे विशेष जीव प्रभावित होते हैं। जैसे समुद्री गाय, पैसेजर कबूतर जैसी अनेक जातियो को लुप्त कर दिया है।
(3) विदेशी जातियो का आक्रमण:- जब बाहरी जातियाँ अनजाने मे या जानबूझकर एक क्षेत्र मे लाई जाती है तब उनमे से कुछ अक्रामक होकर स्थानीय जातियो मे कमी या विलुप्ति का कारण बन जाती है। बाहर से आई हुई जातियो को विदेशी जाति कहते हैं। उदाहरण – जलकुम्भी, लान्टाना केमेरा, नाइल पर्च आदि ।
(4) सहकिलोपन – जब एक जाति विलुप्त होती है, तो उस पर आश्रित दूसरी जातियाँ भी विलुप्त होने लगती है। इसे सहविलोपन कहते है। जैसे – एक परपोषी मछली की प्रजाति के विलुप्त होते ही उसके परजीवी भी विलुप्त होने लगते है।
(5) विक्षुब्धन:- जीवो के प्राकृतिक आवासो के अन्तर्गत पाये जाने वाले बदलाव को विक्षुब्धन कहते है। मानव क्रियाओ या प्राकृतिक कारणो से वनो मे आग लगने, सूखा पड़ने, बाद, पेड़ो की कटाई, खनन आदि से वन बुरी तरह से प्रभावित होते हैं जिसके कारण वन्य जीव लुप्त हो जाते है।
(6) प्रदूषण:- यह मानव के क्रियाकलापो का बुरा परिणाम है। प्रदूषण के द्वारा अनेक जीवो का आवास विभिन्न प्रकार से दूषित है।
जैव विविधता का संरक्षण –
जैव विविधता के संरक्षण के लिए तीन प्रमुख कारण होते हैं:-
(1) संकीर्ण रूप से उपयोगी:- इसके अन्तर्गत वे कारण आते है जिनसे मानव के छोटे – छोटे कार्य पूर्ण होते है जैसे- भोजन, रेशे, इमारती, लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, दवाईया, गोद, रंग आदि इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं, वर्तमान मे 25000 से ज्यादा पौधे ऐसे है। जिनसे अनेक प्रकार की दवाईयो का निर्माण किया जाता है या ये कहे कि वर्तमान मे प्रसिद्ध दवाओ मे से 25% दवाये पादपो के माध्यम से प्राप्त की जाती है। वे राष्ट्र जहाँ जैव-विविधता ज्यादा पायी जाती हैं, वे देश उनके उत्पादो से अत्यधिक व्यापार कर रहे हैं।
(2) व्यापकरूप से उपयोगी:- इसके अन्तर्गत जैव सम्पदा के वे उपयोग आते है जिनका मूल्यांकन नही किया जा सकता है और ये अत्यधिक उपयोगी होते है। जैसे- पौधो द्वारा प्राप्त की गई आक्सीजन जो हमारे लिये प्राण वायु है। वायुमण्डल मे केवल अकेला अमेजन वन उपस्थित आक्सीजन का 20% भाग उत्पादित करता है और पृथ्वी के फेफडे के रूप में जाना जाता है।
(3) नैतिक:- जैव विविधता के संरक्षण मे हमारे नैतिक मूल्यो का भी प्रयोग होता है। मानव यह अच्छी तरह जानता है कि अकेले का अस्तित्व असम्भव है। अगर उसे अपना अस्तित्व बनाये रखना है तो उसके चारो ओर उपस्थित पादपो, जन्तुओ व सूक्ष्म जीवो को भी साथ रखना होगा क्योकि इन सभी का अपना महत्त्व होता है।
जैव विविधता को हम कैसे संरक्षित करे ?
संरक्षण का अर्थ है कि जैव- मण्डल के मानवीय प्रयोग की व्याख्या कीजिए जिसमे मनुष्य की वर्तमान पीढ़ी को भरपूर लाभ प्राप्त हो तथा इनको आने वाली पीढ़ी के लिए भी सुरक्षित किया जा सके ।
जैवमण्डल से इसे बिना हानि पहुँचाये अत्यधिक लाभ प्राप्त करने की तकनीको का प्रयोग ही संरक्षण है।
इसे संरक्षित करने के मुख्य रूप से दो तरीके होते है:-
(i) स्वस्थाने संरक्षण:- इस संरक्षण तकनीक के अन्तर्गत जीवो को उनके प्राकृतिक आवास मे ही संरक्षित किया जाता है, इसलिये इसे स्वस्थाने संरक्षण कहते है। स्वस्थाने संरक्षण के निम्नलिखित रूप दिए गए हैं:-
(a) जैव विविधता हॉट-स्पॉट:- यह संकल्पना नारमन मेयर ने 1988 ई० मे दी थी। इसमे उन क्षेत्रो को रखा गया है जिनमे अत्यधिक जातीय समृद्धि पायी जाती है तथा उच्च स्थानिकता प्रदर्शित करता है, ये जातियाँ अन्य स्थानो पर उपस्थित नही होती है। सर्वप्रथम 25 हॉट-स्पॉट होते थे लेकिन वर्तमान में 34 जैव विविधता हॉट-स्पॉट पूरे विश्व में पाये जाते है। ये 34 हॉट-स्पॉट विश्व के 2% क्षेत्रफल के बराबर होता है। इन्हे सुरक्षा देने से जातियो की विलोपन दर को 30% तक कम कर सकते हैं।
भारत मे तीन जैव विविधता हाट-स्पाट है:-
- पश्चिमी घाट और श्रीलंका
- इण्डो – बर्मा
- हिमालय
(b) राष्ट्रीय उद्यान:- राष्ट्रीय उद्यान वन्यजीवन एवं पारिस्थितिक तन्त्र दोनो के संरक्षण के लिए सुनिश्चित होते है, अत: इनमे शिकार करना एवं पशु चराना पूर्ण रूप से वर्जित होता है तथा इसमे व्यक्तिगत स्वामित्व नही दिये जाते है। इनकी स्थापना एवं नियंत्रण केन्द्र सरकार के अन्तर्गत होती है, परन्तु इसकी व्यवस्था सम्बन्धित अधिकार राज्य सरकार के अधीन होता है।
(C) वन्यजीव अभ्यारण्य:- अभ्यारणो का उद्देश्य केवल वन्यजीव का संरक्षण करना होता है, अत: इनमें व्यक्तिगत स्वामित्व, लकड़ी काटने, पशुओ को चराने आदि की अनुमति इस प्रतिबंध के साथ दी जाती है कि इन क्रियाकलापो से वन्य प्राणी प्रभावित न हो। इनकी स्थापना एवं नियंत्रण राज्य सरकार करती है।
Note:- विश्व का प्रथम राष्ट्रीय उद्यान येलोस्टोन राष्ट्रीय उद्यान है। इसकी स्थापना 1872 ई० USA में हुई।
भारत का प्रथम राष्ट्रीय उद्यान जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान है। यह नैनीताल ( उत्तराखण्ड) में स्थित है। इसकी स्थापना सन् 1936 ई० मे हुई।
(d) जैव मण्डल आरक्षित क्षेत्र:- ये बहुउद्देशीय प्रतिबन्धित सुरक्षित क्षेत्र होते है जो जैव विविधता को संरक्षित रखते हैं। इनमें जन्तु व पादपो के साथ-साथ मूल आदिवासी लोगो को भी इस क्षेत्र मे निवास करने की अनुमति नही है।
प्रत्येक जैव- मण्डल क्षेत्र मे तीन अनुक्षेत्र (भाग) उपस्थित होते है:-
- (i) कोर अनुक्षेत्र:- इस क्षेत्र मे किसी भी प्रकार की मानवीय क्रिया या हस्तक्षेप की अनुमति नही दी जाती है।
- (ii) बफर अनुक्षेत्र:- इनमे मानव क्रियाओ की सीमित अनुमति प्रदान की जाती है।
- (iii) कुशल योजना अनुक्षेत्र:- इसमे मानव के लाभार्थ उत्पादो को प्राप्त करने की पूरी अनुमति हो जाती है लेकिन पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान की अनुमति नही होती है। इसमे जीव-जन्तु व उस क्षेत्र के मूल आदिवासी अपने पशुधन के साथ निवाश करते है।
जीव मण्डल आरक्षित क्षेत्र की विशेषताएँ:-
- जीव मण्डल आरक्षित क्षेत्र मे पूर्ण रूप से सुरक्षित क्षेत्र होना चाहिए।
- जीव मण्डल आरक्षित क्षेत्र मे पारिस्थितिक सन्तुलन शोधकार्यो तथा शिक्षा के बीच पूरा सहयोग व सम्बन्ध जरूरी होता है।
- जीव मण्डल आरक्षित क्षेत्र राष्ट्रीय उद्यानो व उनके चारों तरफ के क्षेत्र का विकास करने वाला होना चाहिए।
जाव मण्डल आरक्षित क्षेत्र के उद्देश्य
- संरक्षात्मक:- इसमे जैव विविधता, पारिस्थितिक तंत्र व जीन-फूल को सुरक्षा प्रदान की जाती है।
- शोध के लिए:- इसमे बायोस्फेयरो मे विभिन्न शोध कार्य करके उसके ज्ञान को अदल-बदल कर प्राकृतिक क्षेत्रो में उन्नति लाया जा सकता है।
- विकासीय भूमिका:- इसके अन्तर्गत प्राकृतिक क्षेत्र, वन्य आबादी, वन्य संसाधन इत्यादि का विकास किया जा सकता है।
- वन्य जातियो की सुरक्षा:- इसमे वन्य प्राणी व पौधो को सुरक्षित रखा जाता है।
(e) सांस्कृतिक व धार्मिक मान्यताएँ:- भारत एक भावना प्रधान देश है। इसके अन्तर्गत लोगो की भावनाएं पेड़ो व जानवरो के साथ भी गहराई से जुड़ी होती है। इसीलिये बहुत से वृक्ष, जानवर, पर्वत, जंगल आदि धार्मिक मान्यताओ के कारण आज बचे हुए हैं। इनमे से कुछ निम्न है:-
- मदिरो के कारण कुमाऊ क्षेत्र के देवदार वन सुरक्षित है।
- मेघालय की जनन्तिया के वन तथा खांसी की पहाडिया।
- राजस्थान की अरावली पहाडियाँ ।
- छत्तीसगढ़ मे सरगुजा, चन्दा और बस्तर क्षेत्र ।
- विभिन्न समाजो मे जीवो के धार्मिक महत्त्व होते है। जैसे- पीपल, बरगद, तुलसी, गाय, राजस्थान का विश्नोई समाज सभी जीव जातियों को सुरक्षित रखते है।
(ii) बाह्य स्थाने संरक्षण:- यदि हम किसी जीव को मानव निर्मित आवास में रखकर सुरक्षा प्रदान करते है तो इसे बाह्य स्थाने संरक्षण कहते है। इसे भी निम्न तरीको से रख सकते है:-
- (a) निम्नताप परिरक्षण:- ऐसे जीव जो दुर्लभ तथा संकटग्रस्थ पादपो के जर्मप्लाज्म को बहुत कम ताप (-195°C) पर संग्रहीत किया जाता है। तो इसे निम्नताप परीरक्षण या कायोप्रिजरवेसन कहते हैं।
- (b) जीन बैंक:- जीन बैंको में समाप्त होने के कगार पर पहुँच चुकी जातियो के जीन को सुरक्षा प्रदान करते है।
- (c) वीर्य बैंक:- वीर्य बैको मे विशिष्ट किस्म के नर-मादा युग्मको का संचय किया जाता है।
- (d) पात्रे निषेचन – इसमे दो उच्च श्रेणी के विशेष जाति के नर व मादा युग्मको का निषेचन परखनली मे या प्रायोगिक पात्र मे पूर्ण कराया जाता है। इसे पात्रे निषेचन कहते हैं।
रेड डाटा पुस्तक
विलुप्त होते जीवो की जातियो की जानकारी के सम्बन्ध में IUCN ने एक पुस्तक का प्रकाशन किया है, जिसे लाल डाटा पुस्तक कहते है। “जुलाजीकल सर्वे ऑफ इण्डिया ” और “बॉटेनिकल सर्वे ऑफ इण्डिया” क्रमश: जन्तु व पादप जातियो का सर्वे करके इन जातियो को सारणी के माध्यम से दर्शाते है। जो लुप्त होने के अंतिम चरण पर है।
- भारत में लगभग 350 स्तनधारी प्राणियो की जातियाँ तथा 1224 पक्षी जातिया उपस्थित है, जिनमें से 53 स्तनधारी व 69 पक्षी जातिया समाप्त होने के कगार पर है है।
- भारत में लगभग विश्व की 10% पक्षी व मछलियो की जातियाँ उपस्थित है।
भारत में वन्य प्राणियो को सुरक्षित रखने के लिए विभिन्न कानून व आरक्षित क्षेत्र बनाये गये है, लेकिन फिर भी भारत की विभिन्न वन्य प्राणी जातियाँ संकटग्रस्त है, जिनमें से कुछ इस प्रकार है
- लाल सिर वाली बटेर
- कृष्ण सार
- चिंकारा
- भेडिया
- अनूप मृग
- श्वेत सारस
- घूसर बगुला
- भारतीय कुरंग
- बारहसिंगा
- गैंडा
- नील गाय
- चीता
- एशियाई गधा
इसके अलावा विश्व के दूसरे देशी से भी अनेक जातिया संकटग्रस्थ हैं, जिनमें मुख्य है:-
- अफ्रीकी चीता
- श्याम गैंडा
- अफ्रीकी सिंह
- गोरिल्ला
- बाघ
- रुसी ध्रुवीय भालू
अन्तर्राष्ट्रीय संरक्षण संस्थाएँ
- (i) साइट्स:- अमेरिका मे 1973 मे इस संस्था की रूपरेखा प्रस्तुत की गई और 1975 में 80 देशो के हस्ताक्षर करने के पश्चात् यह संस्था अस्तित्व मे आयी। यह विश्व की सबसे बड़ी संरक्षण संस्था मानी जाती है, वर्तमान मे जिसके 123 सदस्य देश है
- (ii) ट्रैफिक:- इसकी स्थापना साइट्स ने ही किया। यह वन्य जीवो से उत्पन्न उत्पादों ( हड्डी, खाल, सींग, दाँत) के अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्रों की निरीक्षण करती है।
- (iii) IUCN:- ये वन्य जीवो के संरक्षण हेतु काम करती है। इसी ने 1969 मे रेड डाटा बुक मे दुर्लभ संकटग्रस्थ, सुभेद जातियो को सूचिबद्ध कर उनका वर्णन किया ।
- (iv) विश्व वन्य जीव कोष:- इसे आज के समय मे विश्व प्रकृति वन्य जीव कोष कहते है। यह संरक्षण के लिए धन प्राप्त कराने का कार्य करता है।
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य व दिवस
- विश्व वानिकी दिवस – 21 मार्च
- विश्व पर्यावरण दिवस:- 5 जून
- विश्व प्राणी दिवस:- 3 अक्टूबर
- विश्व आवास दिवस – 4 अक्टूबर
- विश्व संरक्षण दिवस:- 3 दिसम्बर
भारत का सर्वप्रथम राष्ट्रीय उद्यान ‘जिम कार्बेट’ है जो उत्तराखण्ड मे स्थित है:-
संकटग्रस्थ जातियाँ:- वे जातियाँ जिनके सदस्यो की संख्या मानव द्वारा शिकार करने तथा प्राकृतिक आवासो की कमी के कारण अत्यधिक कम हो गई है तथा वे समाप्त होने के अंतिम चरण पर है, उन्हे संकटग्रस्त जातियाँ कहा जाता है। उदा० – सिंह, एक सींग वाला गेंडा |
दुर्लभ जातियाँ:- वे जातियाँ जो पूरे विश्व में नही है, केवल विश्व में कुछ जगहो पर पायी जाती है, उन्हें दुर्लभ जातियाँ कहा जाता है। जैसे- कीवी, शुतुरमुर्ग।
सुभेद जातियाँ:- वे जातियाँ जो वर्तमान में सामान्य संख्या मे पायी जाती है लेकिन भविष्य मे प्राकृतिक आवासो मे कमी होने के कारण संकटग्रस्थ जातियो की श्रेणी में आने वाली है, उसे सुभेद जाति कहते है।
Chapter 1 जीवो मे जनन
Chapter 2 पुष्पी पौधो में लैंगिक जनन
Chapter 3 मानव जनन
Chapter 4 जनन स्वास्थ्य
Chapter 5 वंशागति एवं विविधता के सिद्धांत
Chapter 6 वंशागति का आणविक आधार
Chapter 7 विकास
Chapter 8 मानव स्वास्थ्य तथा रोग
Chapter 9 खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति
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